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________________ संथारगं १२७ संथारग ( संस्तारक) इसमें १२३ गाथायें हैं। इसमें अन्तिम समय में आराधना करने के लिये संस्तारक (दर्भ आदि की शय्या) के महत्त्व का वर्णन है। जैसे मणियों में वैडूर्य, सुगंधित पदार्थों में गोशीर्ष चन्दन और रत्नों में वज्र श्रेष्ठ है, वैसे ही संस्तारक को सर्वश्रेष्ठ बताया है। तृणों का संस्तारक बनाकर उस पर आसीन हुआ मुनि मुक्तिसुख को प्राप्त करता है। संस्तारक पर आरूढ होकर पंडितमरण को प्राप्त होनेवाले अनेक मुनियों के दृष्टांत यहाँ दिये गये हैं। सुबंधु, चाणक्य आदि गोबर के उपलों की अग्नि में प्रदीप्त हो गये और उन्होंने परमगति प्राप्त की।' इस पर भी गुणरत्न ने अवचूरि लिखी है। गच्छायार ( गच्छाचार) ___ इसमें १३७ गाथायें हैं, कुछ अनुष्टुप् छंद में हैं और कुछ आर्या में | इस पर आनन्दविमलसूरि के शिष्य विजयविमलगणि की टीका है । महानिशीथ, बृहत्कल्प और व्यवहार सूत्रों की सहायता से साधु-साध्वियों के हितार्थ यह प्रकीर्णक रचा गया है । इसमें गच्छ में रहनेवाले आचार्य तथा साधु और साध्वियों के आचार का वर्णन है। आचारभ्रष्ट, आचार-भ्रष्टों की उपेक्षा करनेवाला तथा उन्मार्गस्थित आचार्य मार्ग को नाश करनेवाला कहा गया है । गच्छ में ज्येष्ठ साधु कनिष्ठ साधु के प्रति विनयं, वैयावृत्य आदि के द्वारा बहुमान प्रदर्शित करते हैं, तथा वृद्ध हो जाने पर भी स्थविर लोग आर्याओं के साथ वार्तालाप नहीं करते । आर्याओं के संसर्ग को अग्निविष के समान बताया है। संभव है कि स्थविर का चित्त स्थिर हो, फिर भी अग्नि के समीप रहने से जैसे घी पिघल जाता है, वैसे ही स्थविर के संसर्ग से आर्या का चित्त १. डाक्टर ए० एन० उपाध्याय ने. बृहत्कथाकोश की भूमिका (पृष्ठ २६-२९) में भत्तपरिक्षा, मरणसमाही और संथारग की कथाओं को एक साथ दिया है।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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