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________________ चन्दपन्नत्ति . राजा, प्रथम जिन, प्रथम केवली, प्रथम तीर्थंकर और प्रथम धर्मवरचक्रवर्ती कहे जाते थे। उन्होंने ७२ कलाओं, स्त्रियों की ६४ कलाओं तथा अनेक शिल्पों का उपदेश दिया । तत्पश्चात् अपने पुत्रों का राज्याभिषेक कर श्रमणधर्म में दीक्षा ग्रहण की । तपस्वी-जीवन में उन्होंने अनेक उपसर्ग सहन किये । पुरिमताल नगर के उद्यान में उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई और वे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी कहलाने लगे। अष्टापद (कैलाश) पर्वत पर उन्होंने सिद्धि प्राप्त की। उनकी अस्थियों पर चैत्य और स्तूप स्थापित किये गये | दुषमा सुषमा नाम के चौथे काल में २३ तीर्थकर, ११ चक्रवर्ती, ६ बलदेव और ६ वासुदेवों ने जन्म लिया। दुषमा काल में धर्म और चारित्र के, तथा दुषमा-दुषमा नामक छठे काल में प्रलय होने पर समस्त मनुष्य, पशु, पक्षी और वनस्पति के नाश होने का उल्लेख है। तीसरे वक्षस्कार में भरत चक्रवर्ती और उसकी दिग्विजय का विस्तृत वर्णन है ।' इस अवसर पर भरत और किरातों की सेनाओं में घनघोर युद्ध का वर्णन किया गया है। अष्टापदः पर्वत पर भरत चक्रवर्ती को निर्वाण प्राप्त हुआ । पाँचवें वक्षस्कार में तीर्थंकर के जन्मोत्सव का वर्णन है। चन्दपन्नत्ति ( चन्द्रप्रज्ञप्ति) चन्द्रप्रज्ञप्ति का विषय सूर्यप्रज्ञप्ति से बिलकुल मिलता है । इसमें २० प्राभृतों में चन्द्र के परिभ्रमण का वर्णन है । सूर्यप्रज्ञप्ति की भाँति इन प्राभृतों का वर्णन गौतम इन्द्रभूति और महावीर १. तुलना के लिये विष्णुपुराण और भागवतपुराण (५) देखना चाहिये। २. विंटरनीज़ के अनुसार मूलरूप में इस उपांग की गणना सूर्यप्रज्ञप्ति से पहले की जाती थी और इसका विषय मौजूदा विषय से भिन्न था, हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर, भाग २, पृष्ठ ४५७ ।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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