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________________ दिट्ठिवाय होने के कारण इसे दृष्टिवाद कहा गया है । विशेषनिशीथचूर्णि के अनुसार इस सूत्र में द्रव्यानुयोग', चरणानुयोग, धर्मानुयोग और गणितानुयोग का कथन होने के कारण, छेदसूत्रों की भाँति इसे उत्तम-श्रुत कहा है । तीन वर्ष के प्रव्रजित साधु को निशीथ और पाँच वर्ष के प्रव्रजित साधु को कल्प और व्यवहार का उपदेश देना बताया गया है, लेकिन दृष्टिवाद के उपदेश के लिये बीस वर्ष की प्रव्रज्या आवश्यक है। स्थानांगसूत्र (१०.७४२) में दृष्टिवाद के दस नाम गिनाये हैं-अणुजोगगत ( अनुयोगगत), तच्चावात ( तत्त्ववाद ), दिट्ठिवात (दृष्टिवाद), धम्मावात (धर्मवाद ), पुयगत (पूर्वगत), भासाविजत (भाषाविजय), भूयवात (भूतवाद ),सम्मावात (सम्यगवाद), सव्वपाणभूतजीवसत्तसुहावह (सर्वप्राणभूतजीवसत्त्वसुखावह) और हेउवात (हेतुवाद)। . दृष्टिवाद के व्युच्छिन्न होने के सम्बन्ध में एक से अधिक परंपरायें जैन आगमों में देखने में आती हैं। एक बार पाटलिपुत्र में १२ वर्ष का दुष्काल पड़ा । भिक्षा के अभाव में साधु लोग समुद्रतट पर जाकर रहने लगे। सुभिक्ष होने पर फिर से सब पाटलिपुत्र में एकत्रित हुए | उस समय आगम का जो कोई उद्देश या खंड किसी को याद था, सब ने मिलकर उसे संग्रहीत किया, और इस प्रकार ११ अंग संकलित. किये गये। लेकिन दृष्टिवाद किसी को याद नहीं था। उस समय चतुर्दश पूर्वधारी भद्रबाहु नेपाल में विहार करते थे। संघ ने एक संघाटक (साधुयुगल) को उनके पास दृष्टिवाद का अध्ययन करने के लिये भेजा | संघाटक ने नेपाल पहुँचकर संघ का प्रयोजन १. कहीं पर दृष्टिवाद में केवल द्रव्यानुयोग की चर्चा को प्रधान बताया गया है । अन्यत्र इस सूत्र में नैगम आदि नय और उसके भेदप्रभेदों की प्ररूपणा मुख्य बताई गई है (आवश्यकनियुक्ति ७६०)। २. बृहत्कल्पभाष्य ४०४ ।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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