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________________ अणुत्तरोववाइयदसाओ में तेरह और तीसरे में दस अध्ययन हैं। तीसरे वर्ग के प्रथम अध्याय में धन्य अनगार की तपस्या का वर्णन है___धण्णे णं अणगारे णं सुक्केणं पायजंघोरुणा, विगयतडिकरालेणं कडिकहाडेणं पिहिमस्सिएणं उदरभायणेणं, जोइजमाणेहिं पासुलियकडाएहिं, अक्खसुत्तमाला विव गणेजमाणेहिं पिटिठकरडगसंधीहि, गंगातरंगभूएणं उरकडगदेसभाएणं, सुक्कसप्पसमाणेहिं बाहाहिं, सिढिलकडाली विव लंबतेहिं य अग्गहत्थेहि, कंपमाणवाइए विव बेवमाणीए सीसघडीए, पव्वायवयणकमले उब्भडघडमुहे, उब्बुड्डणयणकोसे, जीवंजीवेण गच्छइ, जीवंजीवेण चिट्ठइ, भासं भासिस्सामि त्तिगिलाइ, से जहानामए इंगालसगडिया इ वा (जहा खंदओ तहा) (जाव) हुयासणे इव भासरासिपलिच्छण्णे तवेणं तेएणं तवतेएसिरीए उवसोभेभाणे चिट्ठइ । -उसके पाद, जंघा और ऊरु सूखकर रूक्ष हो गये थे; पेट पिचक कर कमर से जा लगा था और दोनों ओर से उठा हुआ विकराल कढ़ाई के समान हो गया था; पसलियाँ दिखाई दे रही थीं; पीठ की हड्डियाँ अक्षमाला की भाँति एक-एक करके गिनी जा सकती थीं, वक्षःस्थल की हड्डियाँ गंगा की लहरों के समान अलग-अलग दिखाई पड़ती थीं, भुजायें सूखे हुए सर्प की भाँति कृश हो गई थीं, हाथ घोड़े के मुँह पर बाँधने के तोबरे की भाँति शिथिल होकर लटक गये थे ; सिर वातरोगी के समान काँप रहा था ; मुख मुरझाये हुए कमल की भाँति म्लान हो गया था और घट के समान खुला हुआ होने से बड़ा विकराल प्रतीत होता था ; नयनकोश अन्दर को धंस गये थे ; अपनी आत्मशक्ति से ही वह उठ-बैठ सकता था; बोलते समय उसे मूर्छा आ जाती थी, राख से आच्छन्न अग्नि की भाँति अपने तप और तेज द्वारा वह शोभित हो रहा था ।' १. मज्झिनिकाय के महासीहनादसुत्त में बुद्ध भगवान् ने इसी प्रकार की अपनी पूर्व तस्याओं का वर्णन किया है तथा देखिये वोधिराजकुमारसुत्त; दीघनिकाय, कस्सपसीहनादसुस ।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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