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________________ memo PUNAaiN u mmaN... -vv M u ......in.vornh v vv..vi .irni.vi मोक्ष मार्ग aunM......ANN.MOTIV.....rnd - - ' परन्तु जब तक मनुष्यों में से सब प्रकार के दोष दूर नहीं होते, तब तक वे मन, वचन और काया से सम्पूर्ण अहिंसा का पालन नहीं कर सकते । इस लिये, महापन बुद्धिमान् मनुष्य जितेन्द्रिय होकर, विषय भोग से निवृत्त होवे और संयमादि में पराक्रमी होकर विचरे। वह प्रति क्रोध, मान, माया और लोभ से दूर रहे । संक्षेप में, वह समस्त अच्छे कार्यों का पालन करे और पापकर्म त्याग दे। वह तपाचरण में पराक्रमी बनकर निर्वाण को नक्षत्रों में चन्द्रमा के समान श्रेष्ट मानकर उसे प्राप्त करने में पुरुपाथै करे । सर्व प्राणियों का आधार स्थान यह जगत् है, उसी प्रकार जो बुद्ध होगये हैं और होंगे, उनका आधारस्थान निर्वाण ही है। इसलिये, इन्द्रियों का दमन करके, उस . निर्वाण को ही प्राप्त करने में प्रयत्नशील बने । [१२, ३३-६, २२ ] महाप्रज्ञावान् बुद्धिमान् भिन्तु जो कुछ भिक्षा मिले, उसी से अपना निर्वाह करे और निपिड अन्न का त्याग करें। प्राणियों की हिंसा करके अथवा उसके ही लिये तैयार किया हुआ भोजन वह स्वीकार न करे । इस प्रकार मिश्रित अन्न अथवा जिसके विषय में शंका हो, . . ऐसा भिक्षान्न वह न ले । कोई हिंसा करता हो तो उसे किसी प्रकार भी अनुमति न दे। गांव और नगर में विचरते हुए अनेक ऐसे । मौके आ जाते हैं। गांवों में अनेक लोग दान देने के लिये सावद्यअगृहणीय भोजन तैयार कर लेते हैं, अब यदि भिक्षु इसकी प्रशंसा करे तो ऐसे कार्य को उत्तेजन मिलता है; और यदि इसका विरोध करे तो किसी के पेट पर लात पडती है। इसलिये, कुछ भी किये बिना, वह तो अपनी इन्द्रियों का दमन करता हुआ विचरे । [१३-२१] इस प्रकार, जो भिनु अपनी आत्मा की (पाप प्रवृत्ति से) रक्षा. करने में तत्पर हो, सदा इन्द्रिय निग्रही हो, संसार भ्रमण के प्रवाह
SR No.010728
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year
Total Pages159
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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