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________________ (यहो गुख्य धर्माचरण है) शेष जो विस्तार से कहा गया है, वह सिद्धान्त के बाहर है। [8-३५] . जे पायओ परआ वा वि णचा, अलमप्पणो होन्ति अलं परोसि । तं जोई-भूतं उंच सयावसेज्जा, जे पाडकुज्जा अणुवीइ धम्म । अपने अन्दर और बाहर दोनों तरह से सत्य को जानकर जो अपना तथा दूसरों का उद्धार करने में समर्थ हैं। ऐसे जगत् के ज्योतिस्वरूप और धर्म का साक्षात् करके उसको प्र.ट करने वाले (महात्मा) के निकट सदा रहे । [१२-१६] णिकिंचणे भिक्खु सुलूहजीवी, जे गारवं होई सिलोगकामी । आजीवमेयं तु अबुज्झमाणो, पुणो पुणो विप्परिया सुवन्ति ।। जो सर्वस्व का त्याग करके, रूखे-सूखे आहार पर रहने वाला होकर भी गर्व और स्तुति का इच्छुक होता है, उसका सन्यास ही उसकी आजीविका हो जाती है। ज्ञान प्राप्त किये बिना वह संसार में बारबार भटकेगा। [१३-१२] वएं ण से होई समाहिपत्ते, जे पन्नवं मिक्खु विउकसेज्जा। अहवा वि जे लाहमयावलिने, अन्नं जणं खिसई बालपन्ने ।। ___ जो अपनी प्रज्ञा से अथवा किसी अन्य विभूति के द्वारा मदमस्त होकर दूसरे का तिरस्कार करता है, वह समाधि को प्राप्त नहीं . कर सकेगा । [१३-१४] . गन्थं विहाय इह सिक्खमाणो, उट्ठाय सुबम्भचेरं वसेज्जा । ओबायकारी विणयं सुसिक्खे, जे छेय से विप्पमायं न कुज्जा॥
SR No.010728
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year
Total Pages159
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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