SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३६ जाता है। ऐसी ही दशा विपयरस सेवन किये हुए मनुष्य की है। • परन्तु ये विषय तो श्राज या कल छोड़कर चले जायेंगे, ऐसा सोचकर कामी मनुष्य को प्राप्त या प्राप्त विषयों की वासना स्याग दे । [२-३-२, ६] मा पच्छ असाधुता भवे, अच्चेहि अणुसास अप्पगं । अहियं च असाहु सोयई, से थाई परिदेवई बहुं ॥ अन्त में पछताना न पड़े इस लिये श्रभी से ही श्रात्मा को भोंगों से छुड़ाकर समझायो । कामी मनुष्य ग्रन्त में बहुत पछताते और विलाप करते हैं । [ २-३-७ ] इणमेव खणं वियाणिया, णो सुलभं वोहिं च आहियं । एवं सहिएऽहिपासए, आह जिणे इणमेव सगा || वर्तमान समय ही एकमात्र अवसर है ! बोधि- प्राप्ति सुलभ नहीं है । ऐसा जानकर आत्म-कल्याण में तत्पर बनो । जिन ऐसा ही कहते हैं और भविष्य के जिन भी ऐसा ही कहेंगे । [ २-३-१६ ] जेहिं काले परिकन्तं, न पच्छा परितप्पए । ते धीरा बन्धणुम्मुक्का, नावखन्ति जीवियं ॥ . जो समय पर पराक्रम करते हैं । वे बाद में नहीं पछताते । वे धीरमनुष्य बन्धतों से मुक्त होने से जीवन में प्रासक्ति से रहित होते हैं । [ ३-४-१५ ] जेहिं नारीण संजोंगा, पूयणा पिट्ठओ कया । सव्यमेयं निराकिचा, ते ठिया सुसमाहिए | ,
SR No.010728
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year
Total Pages159
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy