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________________ १३४ जमिणं जगती पुढो जगा, कम्मेहिं लुप्पंति पाणिणो । सयमेव कडेहिं गाहई, णो तस्स मुच्चेज्जऽपुट्ठयं ॥ संसार में प्राणी अपने कर्मों से ही दुःखी होते हैं, और अच्छीबुरी दशा को प्राप्त करते हैं। किया हुआ कर्म फल दिये बिना कभी नहीं छूटता । [२-१-४] जे यावि बहुस्सुए सिया, धम्मिय माहण भिक्खुए सिया। अभिणूमकडेहिं मुच्छिए, तिव्यं ते कम्मेहिं किच्चति ॥ मनुष्य भले ही अनेक शास्त्रों का जानकार हो, धार्मिक हो, ब्राह्मण हो या भिक्षु हो; परन्तु यदि उसके कर्म अच्छे न हो तो वह दुःखी ही होगा। [२-१-७] जई वि य णिगणे किसे चरे, जइ वि य भुजिय मासमंतसो । जे इह मायाइ मिज्जइ, आगंता गम्भाय गंतसो ॥ कोई भले ही नग्नावस्था में फिरे, या मास के अंत में एक बार भोजन करे, परन्तु यदि वह मायावी हो, तो उसको वारंबार गर्भवास प्राप्त होगा। [२-१-६] .. पुरिसोरम पावकम्मुणा, पलियन्तं मणुयाण जीवियं । - सन्ना इह काममुच्छिया, मोहं जन्ति नरा असंवुडा।। . हे मनुष्य ! पाप कर्म से निवृत्त हो। मनुष्य का जीवन अल्प है। संसार के पदार्थों में प्रासक्त और कामभोगों में मुछित ऐसे असंयमी लोग मोह को प्राप्त होते रहते हैं। [२-१-१०] .
SR No.010728
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year
Total Pages159
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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