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________________ सूत्रकृतांग सूत्र सम्पूर्ण ऐसे केवल ज्ञान से लोक का स्वरूप स्वयं जाने बिना जो दूसरों को धर्म का उपदेश देते हैं, वे अपना और दूसरों का नाश करते हैं। सम्पूर्ण ज्ञान से लोक का स्वरूप समझ कर और पूर्णज्ञान से समाधि युक्त होकर जो सम्पूर्ण धर्म का उपदेश देते हैं, वे स्वयं तरते हैं और दूसरों को तारते हैं ।' + इस प्रकार तिरस्कार करने योग्य ज्ञान वाले वेदान्तियों को और सम्पूर्णज्ञान, दर्शन और चारित्र से सम्पन्न जिनों को अपनी समझ से समान कहकर हे श्रायुष्यमान् ! तू स्वयं अपनी ही विपरीतता प्रकट करता है । [ ४७-२१] हस्तीतापस- एक वर्ष में एक महागज को मार कर बाकी के जीवों पर अनुकम्पा करके हम एक वर्ष तक निर्वाह करते हैं । थाईक -- एक वर्ष में एक जीव को मारते हो तो तुम कोई दोप से निवृत्त नहीं माने जा सकते हो, फिर भले ही तुम बाकी के जीवों को न मारते हो । अपने लिये एक जीव का वध करनेवाले तुम और गृहस्थों में थोड़ा ही भेद है । तुम्हारे समान ग्रात्मा का अहित करने वाले मनुष्य केवलज्ञानी नहीं हो सकते । [ ५३-५४ ] मानने के बदले में जिस ऐसी ऐसी स्वकल्पित मान्यता को मनुष्यने ज्ञानी की प्राज्ञा के अनुसार परम और काया से स्थित होकर दोषों से अपनी और ऐसा करके समुद्र के समान इस की समस्त सामग्री प्राप्त की है, ऐसे धर्मोपदेश दे । [ ५ ] मोक्षमार्ग में मन, वचन आत्मा की रक्षा की है, भवसागर को पार कर जाने. पुरुष भलें ही दूसरों को * - ऐसा श्री सुधर्मास्वामी ने कहा । १२६ ] "
SR No.010728
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year
Total Pages159
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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