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________________ श्रर्द्धक कुमार १२१ ] अपने मत और मार्ग का उपदेश नहीं देते। जो संयमी किसी भी स्थावर जीव को कष्ट-दुःख न हो, इस प्रकार सावधानी से जीवन व्यतीत करता है, तो वह किसी का तिरस्कार क्योंकर कर सकता है ? [ ११-१४ ] गोशालक - धर्मशालाओं या उद्यानगृहों में अनेक चतुर और छोटे-बडे तार्किक और अतार्किक मनुष्य होंगे, ऐसा सोचकर तुम्हारा श्रमण वहाँ नहीं रहता । उसे भय बना रहता है कि शायद वे सब मेधावी, शिक्षित, बुद्धिमान् और सूत्र और उनके अर्थ का निर्णय जानने वाले भिक्षु कोई प्रश्न पूछेंगे तो क्या उत्तर दूंगा । [ १२-१६ ] आर्द्रक - प्रयोजन अथवा विचार के बिना वह कुछ नहीं करता, राजा श्रादि की जबरदस्ती से भी नहीं। ऐसा मनुष्य किसका भय रक्खेगा ? ऐसे स्थानों पर श्रद्धा से भ्रष्ट श्रनार्य लोग अधिक होते हैं, ऐसी शंका से वह वहीं नहीं जाता । किन्तु, प्रयोजन पड़ने पर वह बुद्धिमान् श्रमण श्रार्यपुरुषों के प्रश्नों का उत्तर देता ही है । [१७-१८ ] गोशालक - कोई व्यापारी लाभ की इच्छा से माल बिछा कर बड़ी भीड़ इकट्ठी कर लेता है, ऐसा ही तुम्हारा ज्ञातपुत्र मुझे जान पड़ता है। [18] प्राक-व्यापारी - वणिक तो जीवों की हिंसा करते हैं, ममस्यपूर्वक परिग्रह रखते हैं और स्नेह सम्बन्धियों से श्रासक्ति नहीं छोड़ते। धन की इच्छावाले, स्त्री- भोग में तल्लीन और कामरस में लोलुप अनार्य ग्राजीविका के लिये दूर दूर
SR No.010728
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year
Total Pages159
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size6 MB
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