SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 123
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्राहार-विचार [ १०७ श्रों से बने हुए ग्रंग होते हैं । वे सब भी स्वतन्त्र जीव होते हैं, अपने अपने कर्मों के कारण उत्पन्न होते हैं, ऐसा ( भगवान् तीर्थंकरने ) हमको कहा है । (२) कितने ही वनस्पति जीव ऊपर कहे हुए पृथ्वीयोनीय वृक्षों उनका रस चूसकर और जल, में वृक्षरूप उत्पन्न होते हैं और तेज, वायु और वनस्पति के शरीरों का भक्षण करके उनके आधार पर रहते हैं और बढ़ते हैं । (३) उसी प्रकार कितने ही वनस्पति जीव उन वृक्षयोनीय वृत्तों . रहते हैं में वृक्षरूप उत्पन्न होते हैं और उनका रस चूसकर .. और बढ़ते हैं ! (४) कितने ही जीव उन वृक्षयोनीय वृक्षों में मूल, कन्द, धड़, त्वचा, डाली, कोपल, पत्ते, फल और बीज के रूप में उत्पन्न होते हैं और उनका रस चूसकर. ...... उनके आधार पर रहते हैं तथा बढ़ते हैं । ........ कितने ही जीव वृक्षों में वृक्षवल्ली के रूप में उत्पन्न होते हैं, उनके सम्बन्ध में ऊपर के चारों प्रकार को घटा लेना चाहिये । उसी प्रकार पृथ्वी में होने वाले घास, औषधियाँ और हरियाली के लिये भी । ". उसी प्रकार पृथ्वी में उत्पन्न होने वाले ग्राय, वाय, काय कूहण, कंदुक उब्वेहणिय निव्वेहणिय सच्छ छत्ता तथा वासायि श्रादि घासों के सम्बन्ध में समझा जावे । परन्तु ( इन वासों में से श्राय, वाय, काय आदि उत्पन्न नहीं होते इसलिये ) उनके सम्बन्ध में पहिला प्रकार ही घटाया जाये, शेष तीन नहीं 1.. · .
SR No.010728
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Jivabhai Patel
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year
Total Pages159
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy