SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ६७ ) पक्षपात या दाक्षिण्यता नहीं करता कि जिससे यह प्रपंच कहा जाय, मै तो सत्य न्याय जैसा होना चाहिये वैसा ही करता हू. लडकी बोली पिताजी, ऐसा हो नही सकता. जिसे लाभ हो उसे तो अवश्य सुख होगा परंतु जिसके अलाभमें न्याय हो उसे तो कदापे दुःख हुये बिना नही रहता. कैसे समझा जाय कि वह सत्य न्याय हुवा है. ऐसी युक्तियों से बहुत कुछ समझाया परंतु शेठके दिमागमे एक न उतरी. एक समय वह अपने पिताको शिक्षा देने के लिए घर में असत्य झगडा करके बैठी और बोली कि पिताजी ! आपके पास मैने हजार सुवर्ण मोहरें घरोहर रखी हुई है, सो मुझे वापिस दे दो. शेठ आश्चर्यचकित होकर बोला कि बेटी, आज तु यह क्या बकती है ? कैसी मोहरें, क्या बात ? विचक्षणा बोली- नहीं नही जबतक मेरी धरोहर चापिस न दोगे तवतक मै भोजन भी न करूंगी और दूसरे को भी नखाने दूंगी. ऐसा कहकर दरवाजेके बीचमें बैठकर जिससे हजारो मनुष्य इकट्ठे हो जाय उस प्रकार चिल्लाने लगी और साफ साफ कहने लगी कि इतना वृद्ध हुवा तथापि लज्जा शर्म है ? जो बालविधवा के द्रव्य पर वुरी दानत कर बैठा है. देखो तो सही यह मा भी कुछ नही बोलती और भाईने तो बिलकुलही मौन धारा है ! ये सब दूसरेके द्रव्यके लालचू बन बैठे है. मुझें क्या खबर थी कि ये इतने लाचू और दूसरेका धन दवाने वाले होगे ? नहीं नहीं ऐसा कदापि न हो सकेगा. क्या बालविधवाका द्रव्य खाते हुए लज्जा नही आती ! मेरा रुपया अवश्य ही वापिस देना पडेगा. किस लिए इतने मनुप्योंमें हास्य पात्र बनते हो ? विचक्षणा के वचन सुनकर बिचारा गेठ तो आश्चर्यचकित हो शरमिदा बन गया, और सब लोग उसे फटकार देने लग गये, इस बनावसे शेठके होस हवास उड गये. लोगों की फटकार स्त्रियोंके रोने कूटने का करुण ध्वनि और लडकीका विलाप
SR No.010725
Book TitleSadbodh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherPorwal and Company
Publication Year1936
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy