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________________ (५१) ८६ निर्यथ मुनि महाव्रतके अधिकारी है हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन, परिग्रह, यह पाचोंका सर्वथा मन वचन और कायासे ___ करना कराना और अनुमोदन आदी त्याग करके वो महानतोको शूर' चीर होकर पालन करनेवाले निग्रंथ अणगारके नामसे पहेचाने जाते है. ८७ अणुव्रत धारक श्रावक कहे जाते हैं स्थूल हिंसादिकका यथाशक्ति संकल्प पूर्वक त्याग करनेवाला श्रावक कहा जाता हैं. ८८ रात्रिभोजन महान् पापका कारण है . पवित्र जैनदर्शनमें साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका मात्रको रात्रिभोजन सर्वथा निषेध है. अन्य दर्शनमेंभी रात्रिमें अन्न लेना मांस बराबर और पानी पीना रुधिर बराबर कहा है. ऐसा समझकर सुझं मनु'प्योको रात्रिभोजन छोड देनाही लाजीम है. रात्रिभोजन करनेचालेको सांप, धूधू, छपकली प्रमुख नीच, अवतार लेने पडते है. और भोजनमें क्वचित् विषजंतु आजानसे. विविध जातिके च्याधि विकार पैदा होते है.कभी मर जावे तो दुर्गतिमें जाना पडता है. ८९ दूसरेभी अभक्षोंका त्याग करना दो रात्रिके वादका दही, तीन रात्रि व्यतीत हुवे बादकी छाछ, कच्चा गोरस दूध, दही, और छांछके साथ मुंग, उडद, अरहर, चणे, इत्यादि द्विदल खाना, कचा निमक, तिल, खसखस, तुच्छ फल, अनजाने फल, दिनके उदय सिवा भोजन करना, संध्याकी संधिके वरूत भोजन करना, अख्खे फलका और बिगर धूप बताए हुवे आचार, गत दिनका पकाया हुवा भोजन, विषग्रहण. ओते, बरफ वगैरा जो जो प्रसिद्ध. अभक्ष ( नहि खाने लायक ) है वह वह सर्व पदार्थ सर्वथा त्याग देने चाहिये. बेंगन, पिल, वडके फल, शहद, मक्खन आदिमी सब अभक्ष समझकर वर्जित करना सो बहोतही फायदेमंद है. ९० अनंतकायका भक्षणभी त्याग देना अद्रक, मूली,
SR No.010725
Book TitleSadbodh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherPorwal and Company
Publication Year1936
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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