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________________ (४२) दुसरोका भय रखना पड़ता है. लोग दुसरेको ठगनेकी इंतेजारीका उपयोग करनेमें आपही होत ठगात है. विचारे ठगलोग समझते नहि है कि हमलोग धर्मक अन अधिकारी हानसे हमारी धर्मकरणी कट काया कलेशरूप निकम्मी हो जाती है. ३१ पडिलकी मर्यादा उहंधन करनी नहि वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध और गुणवृद्धकी योग्य दाक्षिण्यता संभालनेसे अपना हित जरुर होता है. - ३२ उत्तम कुल भर्यादा त्याग देनी नहि नम्रता रखनी, कोइभी एव लगानी नहि. सुशतासे वा स्यानेपनसे बोलना चालना इत्यादि उत्तम नीति रीति आदरनेके लिये प्रयत्न कियेही करना. मतलवमें इतनाही कहेना काफी है कि कोईभी प्रशंसनीय प्रकारसे कुलकी शोभामें वृद्धि हो वैसेही कार्य करना. ३३ दया स्वभाव धारण करना समस्त प्राणियोको समान गिनकर किसीका जीव दुःख पावे वैसा करना नहि सब जीवोंको मित्रके साइश मान लेनाही लाजीम है. ३४ पक्षापक्षी करना नहि सत्यकाही आदर करना. सत्य बावतमें भेद भाव धरना नहि और शत्रु मित्र समान गिन लेकर मध्यस्य भावमें स्थित होना ३५ गुणिजनको देखकर प्रसन्न होना यदि आपको गुण संग्रहनेकी जरूरत हो तो गुणिजनोको देखकर प्रसन्न रहो. क्यों कि गुण गुणियोके पासही निवास करते है. गुणिलोगोका अनादर करनसे गुण दूर भाग जाते है और उनोका योग्य आदर करनेसे गुण नजदीक आते है. ___३६ मोज में आ जाय जैसा वाक्याच्चार करना नहि जब जरुरत हो तब जरुरत जितनाही ज्ञानीके वचनानुसार बोलनेसे
SR No.010725
Book TitleSadbodh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherPorwal and Company
Publication Year1936
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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