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________________ ( १६ ) कर्णेद्रिय लोलूपी आंखे मीचकर हांजी हा करनेवाले अपने आश्रित भोले भक्तों को ठगकर स्वपरको विगाड़ते है. सो विवेकी हंस कैसे सहन कर सके ? दिन प्रतिदिन वो पापी चेप पसार कर दुनियाको पायमाल करते है, तिस्से वो उपेक्षा करने लायक नहि है. जगत् मात्रको हित शिक्षा देनेके लिये बंधाये हुवे दीक्षित साधुओं कि जो सर्वज्ञ प्रभुकी पवित्र आज्ञा - वचनोंको हृदयमें धारण करनेवाले और निष्कपटतासे तद्वत् वर्त्तनेको स्वशाक्त स्फुराने हारे और समस्त लोभ लालचको छोडकर जन्म मरणके दुःखसे डरकर लेश मात्रभी वीतराग वचनको छुपाते श्री सर्वज्ञकी आज्ञाको पूर्ण प्रेमसे आराधनेकी दरकार कर रहे है, वोही धर्मगुरुके नामको सत्यकर बतानेको शक्तिमान हो सकते है. तैसे सिंह किशोरही सर्वज्ञके सत्य पुत्र है, दूसरे तो हाथी के दातोंकी समान दिखाने के दूसरे और खाने के - चर्पण करने के भी दूसरे है तिनके नामको तो डेढ कोसका नमस्कार है ! भो भन्यो ! विवेक चक्षु खोलकर सुगुरु और कुगुरु- सच्चे धर्म गुरु और धर्मठगको बराबर पिच्छानके लोभी, लालचु और कपटी कुगुरुको काले सांपकी तरह सर्वथा त्याग कर अशरण शरण धर्मधुरंधर सिंह किशोर समान सत्य सर्वज्ञ पुत्रोका परम भक्त भावसे सेवन-आराधन करनेको तत्पर हो जाओ ! जिस्से सब जन्म जरा और मरणकी उपाधी अलग कर तुम अंतमें अक्षय पद प्राप्त करो ! उत्तम सारथी या उत्तम नियामक समान सद्गुरुकेही दृढ आलंबन से अगाडीभी असंख्य प्राणि यह दुःखमय संसारका पार पाये है. अपनकोभी ऐसाही महात्माको सदा शरण हो. ऐसे परोपकारशील महात्मा कबीभी प्राणांत तकमी परवंचन करतेही नहि.
SR No.010725
Book TitleSadbodh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherPorwal and Company
Publication Year1936
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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