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________________ (१०) ___१९ किसीकी भी प्रार्थनाका भंग करना नहि. मनुष्य जब बडी मुशीबतमें आ गया हो तबही बहोत करके गर्व टेक छोडकर दूसरे समर्थ मनुष्यको अपनी भीड भांगनेकी आशासे प्रार्थना करता है. ऐसे समझकर दानी दिलके श्याने और समर्थ मनुष्यने तिकी प्रार्थना योग्य ही होय तो तिका प्राणांत तकभी भंग नहि करक स्हामने वालेका दुःख दूर करने लायक जो कुछ देना उचित हो सोमी प्रिय भाषण पूर्वक ही देना, लेकिन उच्छृखल वृत्तिसे देना नहि. प्रिय वाक्य पूर्वक देना सोही भूषणरूप है अन्यथा दूषणरुप ही समजना. ऐसा हिताहितको विवेक पूर्वक सुज्ञ मनुष्यको वर्तन चलानाही योग्य है. नहि तो दिया हुवा दानभी व्यर्थ हो जाता है और मूर्खमें गिनती होती है. २० दीन वचन बोलना नहि, दीन वचनोसे मनुष्यका भार- बोज हलका हो जाता है और फिर सुज्ञजन परीक्षाभी कर लेते है कि यह मनुष्य कपटी या तो खुशामदखार है. गुणवंतको गुणी जानकर उचित नम्रता बतानी वो दीनपने में गिनी जाती नहि है. गुणी पुरुषोंके स्वाभाविक ही दास बनकर रहेना यह अपने स्वाभाविक गुणप्राप्तिके निमित्त होनेसे वो दूषितही नहि गिना जाता है, इसी लिये विवेक लाकर जरुरत हो तब अदीन भाषण करना कि जिस्से स्वार्थ हानि होने नहि पावे. और यह उत्तम नियम विवेकी जन. जीवन पर्यत निभावे तो अत्यंतही शोभारुप है. २१ आत्मप्रशंसा करनी नहि. आत्मश्लाघा याने आपचडाई करके खुश होना यह महान्
SR No.010725
Book TitleSadbodh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherPorwal and Company
Publication Year1936
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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