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[ ४२ ] चंद्र' वेद मुनि भू' प्रमित, संवत्सर नभ मास । पनिम दिन गुरवार युत, सिद्ध योग सुविलास ।।७।। श्री जिनकुशल सूरीस गुरु, भए खरतर प्रभु मुख्य । खेमकीर्ति वाचक भए, तासु परंपर शिष्य ।।७१॥ ता साखा में दोपते, भए अधिक परसिद्ध ।। श्री लक्ष्मीकीर्ति तिहां, उपाध्याय बहु बुद्धि ॥७२॥ श्री लक्ष्मीवल्लभ भए, पाठक ताके शिष्य ।। कालग्यान भाषा रच्यो, प्रगट अरथ परतक्ष ॥७३॥ पंडित मोसुं करि कृपा, शुद्धः करहु सुविचार । पंडित मान करै नहीं, करै सबसुं उपगार ।।७४।।
अंत
ऐसे काल ग्यान को, कह्यौ पंचम समुहेस ।
सुगुरु इष्ट सुप्रसाद तैं, लिख्यो अर्थ लवलेश ||७८। इति कालग्याने भापा प्रबन्धे उपाध्याय श्री लक्ष्मीवल्लभ विरचिते पंचम समुद्देस ॥५॥
लेखन-संवत १७६० वर्ष वैशाख सुदि ८ दिने पं० आणंदधीर लिखिता। प्रति-पत्र ३ । पक्ति १७ से २१ । अक्षर ५८ से ६८ । साइज ९॥४४| विशेष-इस ग्रन्थ की कई प्रतियाँ हमारे संग्रह में हैं।
(अभय जैन ग्रन्थालय) (५) गज शास्त्र (अमर-सुबोधिनी भाषा-टीका ) सं० १७२८ ।
आदिप्रथम पत्र पश्चात् ३ पत्र नहीं मिलते, पीछे का अंश
-इनके वंस के तिनके भेद । जु पांडुर वर्ण होइ । भूरे केस । नखछवि पूछ होइ । धीर होइ । रिस कराई करे। सु एरापति के वंस को। आगी ते काहू ते न डेर (डरे?) नहीं। दांत सेत । आगिलो ऊंचो गात्र । मेरताई छवि । राते नेत्र । सेत सुधेदा । सु पुंडरीक के वंस को जानिवे ।
अंतहस्ती को यंत्रु लिखि जो हस्ती को जंत्र करी । जुद्ध मांझ अथवा लराई में