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लेखनकाल–१८ वीं शताब्दी विशेष-जैसलमेर के रावल सबलसिह के पुत्र अमरसिंह के लिये रचित । ग्रन्थ . में ६ अध्याय हैं।
(जिनभद्रसूरि भंडार, जैसलमेर ) (१९) रस तरगिनी भाषा । कवि जांन । सं० १७११ माघ
आदि
अलख अगोचर सिमरिये, हित सौं आठौं याम । तो निहचै कवि जान कहि, पूजै मनसा काम ॥ १ ॥ दीन दयाल कृपाल अति, निराकार करतार । सन को पोषण भरण है, मन इच्छा दातार ॥ २ ॥ नवी महम्मद समरियै, जिन सर्यों करतार । घारापार जिहाज बिन, कैसे कीजै पार ॥ ४ ॥ साहिजहां जुग जुग जिओ, सुलताननि सुलतान । जान कहें निह राज मे, करत अनंद जहांन ॥ ४ ॥ रसुतरंगिणी संस्कृत, कृते कोविद भान । ताकी मैं टीका करी, भाषा कहि कवि जान ॥ ५ ॥ सब कोइ समझत नहीं, संस्कृत दुगम बखान । तातै मैं कीनी सुगम, रसकनि हित कहि जान ॥ ६ ॥
मंत
सन् हजार जु पैसठो, रविउल अव्वल मास । रसुतरंगिणी जान कवि, भाषा करी प्रकाश ॥ ३२६ ॥ संवत सतरहसै भयो, इग्यारह तापर और ।
माह मास पूरण भई साहिजहाँ के दौर ॥ ३२० ।। लेखनकाल-सं० १७२४ प्रथम आषाढ शुक्ल ९ चन्द्रवासरे लिखितम् प्रति-पत्र २८ ग्र० १०५४
(आचार्य शाखा भंडार, बीकानेर) । (२०) रस रत्नाकर । मिश्र हृदयराम । सं० १७३१ वै० शु० ५.
आरिशिव(र!), पर सरस सिंगार सो सहित सौहै, सारस में जैतवार सखी में सहास है। ओर देवतानि के बदन मांह निन्द मय, महानदी मांह महा रोस को प्रकास है ।