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________________ [ ११८ ] लेखन-संवत १८९६ रा मिती ज्येष्ठ वदि ५ इति श्री अवयदी शुक्ला (कना) पली संपूर्णम् । कर दुख बिगरी नेयन दुख, तन दुख समज समान । लिण्यो जात है कठनसुं सठ जानस आसान ॥१॥ प्रति-(१) पत्र २० । पंक्ति १० । अक्षर २६ से ५० । साइज १०४४|| (२) गुटकाकार । पत्र ११ । पंक्ति १५ । अक्षर ३४१ । साइज ८||४|| सं. १८९१ वि. (अभय जैन ग्रन्थालय) (२) केशवी भाषा । जोशी त्रिलोकचन्द्र । अन्त कालचन्द कवेतम्बरो, पुन उन ही को ज्यान । भिन्न भिन्न समझाय के, दियो भमय पद दान ॥ लेखन-संवत् १८७० माधव सुदि ३ भावहर्षीय कस्तूरचन्द लिखित । प्रति-पत्र ४। विशेष केशव रचित संस्कृत ज्योतिष ग्रन्थ की भाषा टीका है। (श्रीचन्द्रजी गधैया भंडार, सरदारशहर) (३) चंपू समुद्र ( सामुद्रिक ) । भूप । सं० १७२५ वि०। भादि पीता धीता नहिन सो गङ्गा गीता काय । रोता होही तान कोई सीनानाथ सहाय ॥१॥ सुंदार दंड अखंडित बलए, अलिगण मण्डित गंड स्थले । वर दस्पति सुअवर६ अमीचं बन्दे गण नायव भवपुत्रं । वागी . भूषण कण्ठ कवि भूपहि दीने पानि । अन मग लछमन सवै कहो समुह बखानि । पत्तिस लक्ष्मन पुरुप को प्रथमहि कहौ विचारि । बहुरि वही सब अह्न को, जो घर देइ मुरारि ॥ - अन्त अङ्गुरि मध्या जब भनी भूर भमूप । हो हि पुरुष ते उत्तम सामुद्री यह करव । भूपा परति अलंपटहि सिद्धि वद्य है सच ॥ इति भूप भाषित चंपू समुद्रे तृतीय सर्ग शुभमस्तु ।
SR No.010724
Book TitleRajasthan me Hindi ke Hastlikhit Grantho ki Khoj Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherPrachin Sahitya Shodh Samsthan Udaipur
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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