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कवित्त सब ही में सहर जु सिरह, पुरह मेदनी पिछानौ । इमका गुन मनपार, जाहि में रहस म जानौ ॥ भाव भक्ति जिन भेड, जठे श्रावक सुखकारी । दयावंत दातार निपुण भ्रम में नर नारी ॥ जिन धर्म मरम जाणण जिके, हित कर मानव हेरतो। सुरपुरी मांहि इन्द्र पुर सरस पिण मरूधर माहि मेड़तो ॥१॥
(प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय) (२७) मेदनीपुर (मेड़ता) महिमा छन्द । पद्य ३९ । भक्ति विजय । सं० १८६६ का० शु० १५ । भादि
नामि नन्द नित नित नमुं, शन्त नेम सुख कार । पारस श्री वर्द्धमान प्रति, धरूं ध्यान चित्त धार ॥
. छन्द पद्धरी दिग दिट्ठ मिट्ठ मरुधरा देश, वलि शहर मेढता है विशेष । बड़ कवि करत तिन के बखान, मानव जू" त यह सतमान ॥१॥
संघत अठार छासष्ट वर्ष, हद मास कार्तिक भान हर्ष । पूनम जु प्रथम कुमवार पेख, बड तप गग्छ दिपत विशेष ।। ३७ ॥ बिजिनेन्द्रसूरि भरपूरि राज, कर तेज धर्म के ईई काज । कवि कहत भक्त कर पिन्हु जोढ, मेड़तो सदा मुरधरा मौढ़ ॥ ३८ ॥
(प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय) ( २८ ) लाहोर गजल । पद्य ५६ । जटमल नाहर । आदि
देख्पा सहिर जब लाहौर, विसरे सहिर सगळे भौर । राधी नदी नीचे बहे, नावा खुव डाली रहे ॥॥ बोले वत्तकां बग सीर, निरमल को भाठा नीर । वसती सहिर है चौरास, वारह कोश गिरदी घास । २॥
है जिहां जाइ गुल रंग, लाल गुलाब बहुत सुरंग । पिपल राइवेळ चंयेल, मरूभा मोगरा गुल केल ॥ ५५ ॥