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________________ [ १०८ ] * आण चहै जिननी सदा रे, प्रमुदित मन ससनेह । नाम जपे श्री पूज्या मो रे, ज्यूं बावैया मेह ॥ २॥ (प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय ) (१७) पूरब देश वर्णन । पद्य १३३ । ज्ञानसागर (नारण)। आदि कोई मैं देख्या देश विशेषा, नतिरे अब का सब ही में । जिह रूप न रेखा नारी पुरूषा, फिर फिर देख्या नगरी में ॥ जिहाँ काणीचुचरी अधरी वधरी, लगुरी पंगुरी हवै काई । पूरय मति जाज्यो, पच्छि जाज्यो, दक्षिण उत्तर हे भाई ॥१॥ अन्त धणु धणुं क्या कहूं, कयौ मैं किंधित कोई। सब दीठो सब लहै, देश दीठो नही जोई ।। जाणी जेती बान, तिती मैं प्रगट कहाणी। भूठी कथ नहीं कथी, कही है साच कहाणी ।। पिण रहित हूँ इक वात रौ, तन सुख चाहै देहधर । नारण घरी अरू क्या पहर, रहे नहीं सो सुघड़ नर ।। १३३ ।। (प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय ) (१८) पोरवन्दर ( सोरठ देश ) वर्णन । पद्य २६ । मनरूप आदि तिण देश पुरहविंदर प्रसिद्ध, वर्ण यूं ताहि गुन सुन विवुद्ध । कीरति ताहि की सुनहुँ कान, अलका पुरी जू ओपम झुं भान ।।।। पुरविदर है प्रसिद्ध, सारी विंदर में सिर हर । जिन प्रसाद निन विभ, नित्य पूजै तिहां वड नर ॥ गच्छ पति महिमा घणी, करै नरनारी उमंग कर । सुण सूत्र सिद्धान्त, धरम मग अथग हिय धर ।। शज भेंट गिरनार सह, रीत ध्रम खरचै शु रिस् । कब सनरूप महिमा उरै, पुर विंदर दोठी प्रसिद्ध ॥ २६ ॥ (प्रतिलिपि-अभय जैनग्रन्थालय )
SR No.010724
Book TitleRajasthan me Hindi ke Hastlikhit Grantho ki Khoj Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherPrachin Sahitya Shodh Samsthan Udaipur
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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