SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उसके अन्वेषण एवं संग्रह की ओर ध्यान दिया । फलतः हजारों ग्रन्थों की लक्षाधिक प्रतियो का पता लग चुका है । डॉ० कीलहान, बूलर, पीटर्सन, भांडारकर, बर्नेल, राजेन्द्रलाल मित्र, हरप्रसाद शास्त्री आदि की खोज रिपोर्टों एवं सूचीपत्रों को देखने से हमारे पूर्वजो की मेधा पर आश्चर्य हुए बिना नहीं रहता । डा० आफेक्ट ने 'कैटेलोगस कैटेलोगरम' के तीन भागों को तैयार कर भारतीय साहित्य की अनमोल सेवा की है । उसके पश्चात् और भी अनेक खोज रिपोटें एवं सूचीपत्र प्रकाशित हो चुके है जिनके आधार से मद्रास युनिवर्सिटी ने नया 'कैटेलोगस कैटेलोगरम' प्रकाशित करने की आयोजना की है । खोज का काम अब दिनोंदिन प्रगति पर है अतः निकट भविष्य में हमारी जानकारी वहुत बढ़ जायगी, यह निर्विवाद है। हिन्दी भाषा का विकास एवं उसका साहित्य प्रकृति के अटल नियमानुसार सब समय भाषा एकसी नहीं रहती, उसमे परिवर्तन होता ही रहता है। वेदो की आर्ष भाषा से पिछली संस्कृत का ही मिलान कीजिये यही सत्य सन्मुख अायगा। इसी प्रकार प्राकृत अपभ्रंश में परिणत हुई और आगे चलकर वह कई धाराओं में प्रवाहित हो चली । वि० सं० ८३५ मे जैनाचार्य दाक्षिण्यचिन्हसूरि ने जालोर में रचित 'कुवलयमाला' मे ऐसी ही १८ भाषाओं का निर्देश करते हुए १६ प्रान्तो की भापाओं के उदाहरण उपस्थित किये हैं । मेरे नम्रमतानुसार हिन्दी आदि प्रान्तीय भाषाओं के विकास को जानने के लिये यह सर्वप्रथम महत्वपूर्ण निर्देश है । हिन्दी भाषा की उत्पत्ति पर विचार करते हुए कुवलयमाला में निर्दिष्ट मध्यदेश की भापा से उसका उद्गम हुआ ज्ञात होता है । ९ वी शताब्दी मे मध्य देश में बोले जाने वाले 'तेरे मेरे आउ" शब्द ११७० वर्प होजाने पर भी आज हिन्दी में उसी रूप मे व्यवहृत पाये जाते हैं। १४ वी शताब्दी के सुप्रसिद्ध विद्वान् श्री निनप्रभसूरि या उनके समय के रचित गुर्जरी, मालवी, पूर्वी और मरहठी भाषा की वाली नामक कृति उपलब्ध है उससे हिन्दी का सम्बन्ध पूर्वी के ही अधिक निकट ज्ञात होता है । अनूप संस्कृत पुस्तकालय मे "नव वोली छंद' नामक रचना प्राप्त है -पुरातत्वान्वेपण का आरंभ सन् १७७४ के १४ जनवरी को सर विलीयम जोन्स के एशियाटिक सोसायटी की स्थापना से शुरु होता है। - इसके सम्बन्ध में सुनि जिनविजयजी का "पुरातत्व संशोधन नो पूर्व इतिहास" नियंघ द्रष्टव्य है जो आयविद्याव्याख्यानमाला में प्रकाशित है। २-देखें अपनश काव्यत्रयी ५० ९१ से ९४ । ३- राजस्थानी, वर्प ३ मंक ३ में प्रकाशित ।
SR No.010724
Book TitleRajasthan me Hindi ke Hastlikhit Grantho ki Khoj Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherPrachin Sahitya Shodh Samsthan Udaipur
Publication Year
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy