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________________ मालम नहीं होता कि मंदिरके ऊपरकी ध्वजाका इस पूजनादिकके फलके साथ कौनसा सम्बंध है और जैनमतके किस गूढ सिद्धान्तपर ग्रंथकारका यह कथन अवलम्बित है। इसी प्रकार यह भी मालूम नहीं होता कि फटे पुराने तथा खंडित वस्त्रोंका दान, पूजन, तप और स्वाध्यायादिके फलसे कौनसा विरोध है जिसके कारण इन कार्योंका करना ही निरर्थक हो जाता है। भगवदुमास्वामिने तत्त्वार्थसूत्रमें और श्रीअकलंकदेवादिक टीकाकारोंने 'राजवार्तिकादि' ग्रंथोंमें शुभाशुभ कर्मोके आस्रव और बन्धके कारणोका विस्तारके साथ वर्णन किया है। परन्तु ऐसा कथन कहीं नहीं पाया जाता जिससे यह मालूम होता हो कि मंदिरकी एक ध्वजा भी भावपूर्वक किये हुए पूजनादिकके फलको उलटपुलट कर देनमें समर्थ है। सच पूछिये तो मनुष्यके कर्मोका फल उसके भावोंकी जाति और उनकी तरतमतापर निर्भर है। एक गरीब आदमी अपने फटे पुराने कपड़ोंको पहिने हुए ऐसे मंदिरमें जिसके शिखरपर ध्वजा भी नहीं है बड़े प्रेमके साथ परमात्माका पूजन और भजन कर रहा है और सिरसे पैर तक भक्ति रसमें डूब रहा है, वह उस मनुष्यसे अधिक पुण्य उपार्जन करता है जो अच्छे सुन्दर नवीन वस्त्रोंको पहिने हुए ध्वजावाले मन्दिरमें विना भक्ति भावके सिर्फ अपने कुलकी रीति समझता हुआ पूजनादिक करता हो । यदि ऐसा नहीं माना जाय अर्थात् यह कहा जाय कि फटे पुराने वस्त्रोंके पहिनने या मन्दिरपर ध्वजा न होनेके कारण उस गरीब आदमीके उन भक्ति भावोंका कुछ भी फल नहीं है तो जैनियोंको अपनी कर्म फिलासोफीको उठाकर रख देना होगा। परन्तु ऐसा नहीं है। इसलिये इन दोनों पद्योंका कथन युक्ति और' आगमसे विरुद्ध है।
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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