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________________ ५४ इस गाथाका उल्लेख 'पचाध्यायी' में भी, पृष्ठ १३३ पर, 'उक्त च रूपसे पाया जाता है। इसलिये यह तीसरा पर या तो वसुनन्दिश्रावकाचारकी टीकासे लिया गया है या उम गायापरले उल्या किया गया है। (शेप आगे) लक्खी पाई। (पद्यगल्प) काशीम थी एक अनोखी लक्खी पाई। रंभासे भी रुचिररूपवाली मनभाई ॥ दूर दूर तक थी प्रसिद्ध उसकी सुधराई। चित्र देखकर हुए हजारों थे सौदाई ॥ कथकोंने की शायरी, भाव बतानेके लिए। कितनोंने तोड़े कलम कवि कहलानेके लिए॥ (२) मिला बाहरी रूप-रंग था उसको जैसा। था स्वभाव भी सहृदयतासे सुन्दर वैसा ।। कामशास्त्रका प्रथ चाहिए उसको कहना। थे सब सिद्ध प्रयोग, सदा लड़ता था लहना ॥ नाच और गाना कभी उसका होता था कहीं। तिल रखनेको भी जगह तो फिर मिलती थी नहीं। धनी, सेठ, जौहरी, महाराजा, रजवाड़े । जिनके देखे दूत अनेकों तिरछे आड़े ।।
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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