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________________ ५० हेयं पलं पयः पेय समे सत्यपि कारणे विषद्रोरायुषे पत्र मूलं तु मृतये मतम् ॥२८॥ तच्छाक्यसांख्यचार्वाकवेदवैद्यकपर्दिनाम् । मतं विहाय हातव्यं मांसं श्रेयोर्थिभिः सदा ।। २८४ ।। शरीरावयवत्वे पि मांसे दोपो न सर्विपि ॥ २८२॥" उपर्युक्त पद्य श्रीसोमदेवसरिकृत यशस्तिलकसे लिये हुए मालूम होते हैं। इन पद्योंमे पहले तीन पद्य यशस्तिलकके छठे आश्वासके और शेष पद्य सातवें आश्वासके है। ____ग-योगशास्त्र ( श्वेताम्बरीय अथ ) से । "सरागोपि हि देवश्चेद्गुरुरब्रह्मचार्यपि । कृपाहीनोऽपि धर्मश्चेत्कष्ट नष्टं हहा जगत् ॥ १९ ॥ नियस्वेत्युच्यमानोऽपि देही भवति दुःखित । मार्यमाणः प्रहरणेदारुण स कथं भवेत् ।। ३३४ ॥ कुणिर्वरं वरं पंगुरशरीरी वरं पुमान् । अपि संपूर्णसागो न तु हिंसापरायणः ॥ ३४१॥ हिंसा विघ्नाय जायेत विघ्नशांत्य कृतापि हि। कुलाचाराधियाप्येषा कृप्ता कुलविनाशिनी ॥ ३३९ मांस भक्षयितामुत्र यस्य मांसमिहाझयहम् । एतन्मांसस्य मांसत्वे निरुक्तिं मनुरब्रवीत् ॥ २६५ ॥ उलूककाकमार्जारगृध्रशंवरशूकराः। अहिवृश्चिकगोधाश्च जायंते रात्रिभोजनात् ॥ ३२६॥" उपर्युक्त पद्य श्रीहेमचन्द्राचार्य विरचित 'योगशास्त्र' से लिये । हुए मालूम होते है। इनमेसे शुरूके चार पद्य योगशास्त्रके दूसरे । प्रकाश (अध्याय) के हैं और इस प्रकाशमें क्रमशः नं १४.२७ २८-२९ पर दर्ज हैं। अन्तके दोनों पद्य तीसरे प्रकाशके है और इनकी संख्या १६ और १६७ है।
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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