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________________ ३०८ दूसरे विषयोंको भी जाननेकी जरूरत रहती है। व्याकरणका मर्मज्ञ कोई तव तक नहीं हो सकता जब तक साहित्यका ज्ञान प्राप्त न कर ले। धर्मशास्त्रोंका मर्म तबतक नही समझा जा सकता जबतक मनुष्यमे इतिहास, विज्ञान, भूगोल, समाजशास्त्र, देशकाल आदिका ज्ञान न हो। काव्यका मर्मज्ञ वह हो सकता है, जो मानसशास्त्रका ज्ञाता हो, • मनुष्यसमाजके भीतरी भावोसे परिचित हो और प्रकृतिके मुक्तक्षेत्रमे - जो वर्षोंतक स्वच्छन्द विचरता रहा हो। इसलिए प्रत्येक विषयमें निष्णात करने के लिए उस विषयके सहकारी विषयोके साधारणज्ञानकी बहुत बडी आवश्यकता है । इसलिए जो ऊँचे दर्जेकी शिक्षासंस्थायें है उनमें मुख्य विषयोंके साथसाथ दूसरे अप्रधान विषयोका भी साधारण ज्ञान करा देनेका प्रवन्ध रहता है । बालकोंकी प्रकृति भी ऐसी ही होती है कि वे लगातार एक दो विप्रयोको जी लगाकर नहीं पढ सकते है, घण्टे दो घण्टे पढ़नेके बाद एक विपयसे उनका जी ऊब उठता है। तब आवश्यक होता है कि उन्हें कोई दूसरा विषय पढाया जाय और उसके बाद और कोई तीसरा । इस तरह विद्यार्थियोकी योग्यताके अनुसार एक साथ कई विषय बहुत अच्छी तरहसे पढाये भी सकते है। शिक्षाविज्ञानके ज्ञाता इस वातपर ध्यान रखकर कि विद्यार्थियोंके मस्तकपर अधिक बोझा न पड़ जाय-उन्हे अधिक परिश्रम न करना पड़े-प्रत्येक कक्षामें कई विपयोके पढ़ानेका प्रबन्ध कर सकते है। ६. संस्कृत पाठशालाओके पठनक्रममे सबसे बड़ा विवाद इस बात पर उपस्थित होता है कि जैनग्रन्थ पढाये जायें या जनेतर विद्वानोंके वनाये हुए अन्य पढाये जाये । इस विषयमें भी हम अपनी क्षुद्र सम्मति दे देना चाहते है। यह विवाद धर्मशास्त्रोको लेकर नहीं होता।
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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