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________________ २८८ इसी कारण तुम मुझे अपनेसे जुदा और मै तुम्हे अपनेसे जुदा समझता हूँ। इस परदेके कारण मनुष्य अच्छी तरह नहीं देख सकता और पापके गढेमें जा पडता है। तुम्हारी आँखोंके आगे इसी मायाका परदा पडा है, इससे तुम नहीं देख सकते कि इन जातिभाइयों ( मनुष्य जाति) के साथ तुम्हारा कितना निकटका सम्बन्ध है। वास्तवमें यह सम्बन्ध तुम्हारे शरीरके एक दूसरे अवयवके सम्बन्धकी अपेक्षा बहुत ही निकटका है । तुम्हारे जीवनका सम्बन्ध जैसा दूसरोंके जीवनके साथ है वैसा ही दूसरोंके जीवनका सम्बन्ध तुम्हारे जीवनके साथ है । यह सम्बन्ध बहुत ही गाढा है। ससारमें बहुत थोड़े पुरुष है जो सत्यको जानते है । इस सत्यकी प्राप्ति करना ही मनुष्य जीवनका कर्तव्य है। इसको प्राप्त करनेके लिए मै तुम्हें थोडेसे मत्र बतलाता है। इन्हें तुम अपने हृदयमें लिख रक्खो : १ जो दूसरोंको दु.ख देता है वह मानो अपनेमें आपको दुःखदेनेवाले वीजोको बोता है। २ जो दूसरोंको सुख देता है वह अपने हृदयमें आपको सुखी करनेके बीजोंको बोता है। ३ यह बड़ा ही भ्रामक विचार है कि मैं अपने जातिभाइयोंसे जुदा हूँ। इन तीन मत्रोंकी आराधना करते रहनेसे तुम सत्यके मार्ग पर आ पहुँचोगे। पाण्डु-महानुभाव श्रमणमहाराज, आपके वचनोंका मर्म बहुत ही गहरा है। मैं इन वचनोंको अपने हृदयमें लिख चुका । मैंने बनारस बाते समय आप पर जो थोटीसी दया की थी और वह भी ऐसी कि जिसमें एक पेसाकी भी खर्च न था, उसका फल मुझे इतना बड़ा
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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