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________________ २६८ है; परन्तु उसका भी अव तक पता नहीं है। यो तो जनसमाजमें बहुत ही कम पत्र ऐसे है जो समयपर निकलते हों। सब ही कुछ न कुछ विलम्बसे निकलते हैं; परन्तु इन नवजात पत्रोंका विलम्ब बहुत ही खटकता है। शुरूमें ये बड़ा जोश-खरोश दिखलाते हुए दर्शन देते हैं और पीछे गहरी डुबकी ले जाते है । हमारी समझमें इसका कारण अनुभवकी कमी और उत्साहकी अधिकता है। काम जब सिरपर पड़ता है, तब मालूम होता है कि वह कठिन है। पर नये जोशवाले इस बातपर विचार नहीं करते और अन्तमें नाना असुविधाओंमें पड़कर डुबकी लेनेके लिए लाचार होते हैं। अच्छा हो. यदि कर्मक्षेत्रमें पैर रखनेके पहले ही आनेवाली असुविधाओंपर थोडासा विचार कर लिया जाय । इस नोटके लिखे जानेके बाद मालूम हुआ कि तत्त्वप्रकाशक बन्द कर दिया गया। ७. द्रव्यदाता और जीवनदाता । किसी भी आन्दोलन या प्रयत्नका फल जल्दी धष्टिगोचर नहीं होता; बहुत समय तक उसकी प्रतीक्षा करनी पड़ती है। विशेष कर ऐसे समाज या समूहके लिए किये हुए आन्दोलनका फल तो देरसे दृष्टिगोचर होना ही चाहिए जो मृतप्राय हो रहा हो, जिसकी हिलनेवलनेकी शक्ति नष्ट हो गई हो, जो किसी भी नई वातको शकाको दृष्टिसे देखता हो और अपनी पुरानी लकीरका फकीर बना हुआ हो । लगभग २० वर्षके लगातार आन्दोलनके चाद अभी अभी जैनसमाजके करवट बदलनेके लक्षण दिखलाई दिये हैं और अव आशा होने -लगी है कि वह कुछ समयमें एक सजीव समाजके रूपमें खडा हो सकेगा। इसके पहले बहुतसे आन्दोलन करनेवालोंको कभी कभी बडी ही निराशा होती थी और वे समझते थे कि यह समाज सर्वथा ही निर्जीव हो गया है-इसमें चेतनता लानेका प्रयत्ल करना निष्फल ही होगा। परन्तु सौभाग्यका विषय है कि अब हम उक्त निराशाकी सीमाको पार गये है और आशाके हरे भरे क्षेत्रको अपने सामने देख रहे हैं। अभी अभी जो हमारे यहाँ दो लाख और चार लाखके दो वडे बडे दान हुए हैं, उनके कारण निराशा हमारे हद्दसे निकल ही रही थी कि बाबू -सूरजभानजी वकील और बाबू जुगलकिशोरजी मुख्तारके स्वार्थत्याग व्रत ग्रहण
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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