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________________ २४५ उडा हुआ उत्साह सारा, आत्म-बल जाता रहा। उत्थानकी चर्चा नहीं, अब पतन ही भाता हहा !! पूर्वज हमारे कौन थे? वे कृत्य क्या क्या कर गये ? किन किन उपायोंसे कठिन भवसिन्धुको भी तर गये? रखते थे कितना प्रेम वे निजधर्म-देश-समाजसे? परहितमें क्यों संलग्न थे, मतलब न था कुछ स्वार्थसे ? (५) क्या तत्त्व खोजा था उन्होंने आत्म-जीवनके लिए? किस मार्गपर चलते थे वे अपनी समुन्नतिके लिए? इत्यादि बातोंका नहीं तव व्यक्तियोंको ध्यान है। वे मोहनिद्रामें पड़े, उनको न अपना ज्ञान है। सर्वस्व यों खोकर हुआ तू दीन, हीन, अनाथ है। कैसा पतन तेरा हुआ, तू रूढियोंका दास है।। ये प्राणहारि पिशाचिनी, क्यो जालमें इनके फँसा । ले पिण्ड तू इनसे छुड़ा, यदि चाहता अब भी जियो । जिस आत्म-बलको तू भुला बैठा उसे रख ज्ञानमें । क्या शक्तिशाली ऐक्य है, यह भी सदा रख ध्यानमें । निज पूर्वजोंका स्मरण कर कर्तव्यपर आरूढ़ हो। बन स्वावलम्बी, गुण-ग्राहक; कष्टमें न अधीर हो ।। १ तेरे व्यक्तियोंको अर्थात् जैनियोंको। २ ये रूढियाँ प्राणोंको हरनेवाली पिशाचिनी हैं । ३ जीवित रहना । ४ एकता, इत्तफाक् ।
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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