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________________ २३४ धमकी दे रहे हैं। सातवें रुपयोंके दो चार गुलामोंको फुसलाकर उनसे जैनधर्मकी प्रशसा कराके आपको कृतकृत्य मान रहे है और आठवें दिगम्बर स्थानकवासी आदि सम्प्रदायोंको बुरा भला कह कर फलहका वीज बो रहे है। इस तरह कितने गिनाये जाय, एकसे एक बढकर काम कर रहे हैं और अपने मुनि साधु आदि नामाको अन्वर्थ सिद्ध कर रहे है। अब पाठक सोच सकते है कि जनधर्मके ऊंचे आदशेले हमारे साधु कितने नीचे आ पड़े है। तेरापंथी दिगम्बरी भाइयोंके कन्धोंपर साधुओं का यह कष्टप्रद जूमा नहीं है, इसलिए मेरे समान उन्हें भी प्रसन्न होना चाहिए था; परन्तु देखता हूँ कि उनका ऐसा ख़याल नहीं है और इसलिए वे एक दूसरी तरहके जूऍको कन्धोपर धरनेका प्रारंभ कर चुके हैं। कई प्रतिष्ठा करानेवाले और कई अपनी प्रतिष्ठा बढानेवाले पंडितोंने तो उनकी नकेल बहुत दिनोंसे अपने हाथमें ले ही रक्खी है और अब कई क्षुल्लक ऐलक ब्रह्मचारी आदि नामधारी महात्मा उनपर शासन करनेके लिए तैयार हो रहे है। तेरापथी भाइयो, क्षुल्लक, ऐलक, ब्रह्मचारी बुरे नहीं-इनकी इस समय बहुत आवश्यकता है, परन्तु सावधान! केवल नामसे ही मोहित होकर इन्हें अपने सिर न चढा लेना, नहीं तो पीछे पिण्ड छुड़ाना मुश्किल हो जायगा । ___ यहाँ पर यह कह देना मैं बहुत आवश्यक समझता हूँ कि वर्तमान साधुओंसे मेरी जो अरुचि है वह इसलिए नहीं है कि मैं साधुसम्प्रदायको ही बुरा समझता हूँ । नहीं, मै धर्म, समाज और देशके कल्याणके लिए साधुसंघका होना बहुत ही आवश्यक समझता हूँ। मेरी समझमें जिस समाजमें ऐसे लोगोंका अस्तित्व नहीं है कि जिनका जीवन स्वय उनके लिए नहीं है-दूसरोंके पारमार्थिक और ऐहिक
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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