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________________ कभी अच्छा नहीं हो सकता । टस विपरीत व्यापारसे कभी भलाई नहीं हो सकती । कमसे कम भारतवर्ष का जल यायु तो ऐसा अन्हा है कि हमें इन सब उपकरणोंके चिर-दास बननेकी कोई जरूरत नहीं है । पहले भी कभी हम इनके दाम नहीं थे; हम आवश्यकता पड़नेपर कभी इनको काममें भी लाते थे और कभी इन्हें खोल कर भी रख देते थे। हम जानते थे कि वेश भूपा (कपड़े लत्ते पहनना, साज श्रृंगार करना) एक नैमित्तिक वस्तु है-इससे अधिक इममें और कोई महत्त्व नहीं है कि यह कभी कभी हमारे प्रयोजनको साध देता है, अर्थात् हमें शीतादिके कप्टसे बचा देता है । बस, इसका हम पर इतना ही स्वामित्व था। इसी कारण हम खुला शरीर रखनमें लज्जित नहीं होते थे और दूसरोंका भी खुला शरीर देखकर अप्रसन्न न होते थे। इस विषयमें विधाताके प्रसाढसे यूरोप निवासियोकी अपेक्षा हमे विशेष सुविधा यी । हमने आवश्यकतानुसार लज्जाकी रक्षा भी की है और अनावश्यक अतिलजाके द्वारा अपनेको भारग्रस्त होनेसे भी बचाया है। यह बात स्मरण रखना चाहिए कि अतिलज्जा लजाको नष्ट कर देती है। कारण, अतिलज्जा ही वास्तवमें लज्जाजनक है । इसके सिवा जब मनुष्य 'अति' का बन्धन बिलकुल ही छोड़ देता है अर्थात् प्रत्येक बातमें जियादती करने लगता है तब उसे और किसी तरहका विचार नहीं रहता । यह हम मानते है कि हमारे देशकी स्त्रियाँ अधिक कपडा नहीं पहनती हैं किन्तु वे (विलायती मेमोंके समान) जान बूझकर सचेष्ट भावसे छाती और पीठके आवरणका बारह आना हिस्सा खुला रखके पुरुपोंके सामने कभी नहीं जा सकती। अवश्य ही हम लज्जा नहीं करते है, परन्तु साथ ही लजापर इस तरहका आघात भी नहीं करते है।
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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