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________________ २०६ तो पदतल हमारे सहायक न बनकर उलटे पदपद पर दुःखके कारण हो जाते हैं। केवल इतना ही नहीं, उनके लिए हमें सर्वदा ही सतर्क और सावधान रहना पड़ता है। क्योंकि यदि हम मनको अपने पदतलोंकी सेवामें नियुक्त न रक्खें तो आपत्ति उठानी पड़े। यदि उनमे थोडीसी सर्दी लग जाय तो छींके आने लगे और पानी लग जाय तो ज्वर चढ़ने लगे।तब लाचार होकर मोजे, स्लीपर, जूते, बूट आदि नाना उपचारोंसे हम इस उपाङ्गकी पूजा करते हैं और इसे सारे कर्मोसे विमुक्त कर देते है अर्थात् पैरोंको किसी कामका नहीं रखते । ईश्वरने हमें यथेष्ट नहीं दिया, इसलिए मानो हम उसके प्रति यह एक प्रकारका उलहना देते है-यह बतलाते हैं कि तुम्हारे दिये हुए पदतल हमारी उक्त 'बाह्य पूजासामग्रीके बिना किसी कामके नहीं। विश्वजगत् , और अपनी स्वाधीन शक्तिके बीच, सुविधाओंके प्रलोभनसे हमने इसी तरह न जाने कितनी 'चीनकी दीवालें खड़ी कर दी हैं । इस तरह संस्कार और अभ्यासपरम्परासे हम उन कृत्रिम आश्रयोंको सुविधा और अपनी स्वाभाविक शक्तियोंको असुविधा समझने लगे हैं। कपड़े पहन पहन कर हमने उन्हें इस पदपर पहुँचा दिया है कि कपड़े हमारे चमड़ेसे भी बड़े हो गये हैं। अब हम विधाताके बनाये हुए इस आश्चर्यमय सुन्दर अनावृत्त (नग्न) शरीरकी अवज्ञा या अवहेलना करने लगे हैं। किन्तु जब हम पुराने समयपर दृष्टि डालते हैं तो मालूम होता है। कि कपडों और जूतोंको एक अन्धेकी मूठके समान पकड़ रखना हमारे इस गर्मदेशमे नहीं था । एक तो सहज ही हम बहुत कम कपडोंका उपयोग करते थे और फिर बचपनमें हमारे बच्चे बहुत समय तक कपड़े जूते न पहनकर अपने नग्न शरीरके साथ नग्न जगतका योग
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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