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________________ १७९ गृहस्थोंके आचार विचारोंके भी अच्छे ज्ञाता थे। यद्यपि इस समय उन्हें अध्यात्मसे अतिशय प्रेम था, परन्तु वह नाममात्रका अध्यात्म नहीं सचा अध्यात्म था। इसके बाद दर्शनमोहके उदयसे उनके मनम इस प्रकारकी भावना हुई कि 'साधु और श्रावकोंके आचारमें अनेक अतीचार लगते हैं। शास्त्रोंमें साधुओं और श्रावकोंका जैसा आचार वर्णन किया गया है वैसा न साधु पालते है और न श्रावक उसके अनुसार चलते हैं। अर्थात् आजकल न तो साधुपना है और न श्रावकपना; और जो व्यक्रियायें की जाती है उनसे कोई फल निकलनेवाला नहीं। अतएव केवल अध्यात्ममे लीन होना ही सर्वश्रेष्ठ है।' जब उनके मनमें इस प्रकारका विश्वास हुआ तब उसे उन्होंने अपने गुरुपर भी प्रकट कर दिया। गुरु महाराजने बहुत ही अच्छी युक्तियाँ देकर समझाया कि व्यवहारकी बड़ी भारी आवश्यकता है। केवलीभगवान् भी व्यवहारका त्याग नहीं करते है। दिगम्बराचार्योने भी समयसारमूल तथा उसकी टीकामें और दूसरे अनेक ग्रन्थोंमे व्यवहारकी पुष्टि की है। परन्तु दर्शनमोहके उदयसे उन्हें कोई भी वात न रुची। बाद उन्होंने पं. रूपचंद, चतुर्भुज, भगवतीदास, कुँवरपाल और धर्मदासके साथ मिलकर श्वेताम्बर दिगम्बरका खिचडारूप एक जुदा मत चलाया और हिन्दीमें जो समयसारनाटक बनाया उसमें भी मूल समयसारके अतिरिक्त बहुतसी नई बातें धुसेड़ . दी। श्वेताम्बरसम्प्रदाय छोड़के जब वे दिगम्बरसम्प्रदायमे गये तब वहाँ भी उन्हें गुरुकी पीछी कमण्डलुपर शंका हुई और वे दिगम्बर पुराणोंको अप्रमाणिक मानने लगे | वनारसीदासजीने अपना मत वि० १६८० मे प्रगट किया।" युक्तिप्रबोधमें यह भी लिखा है कि "जब बनारसीदासजीकी मृत्यु हो गई, तब उन्होंने अपनी गादीपर कुँवरपालको बैठाया क्योंकि उनके
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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