SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ __ भी प्रत्यक्ष है कि एक नवयुवकको इस बातका समझा देना कि वह अति 'उत्तम पुरुष है ओर सारे सद्गुण उसमे एकत्रित हैं, कुछ कठिन नहीं। उसके जीमें यह बात बिठा देना कि मस्तकसम्बन्धी शक्तिकी बढ़तीके लिए परिश्रम करना व्यर्थ है फिर भी वह अपनेको विद्यार्थियोंसे उत्तम ही समझे कुछ कठिन नहीं; परन्तु हमको उचित है कि हम इस व्यर्थ पागलपनसे बचें। ___ अन्तमें यह और कह देना चाहता हूँ कि हमको इस बातका खयाल रखना जरूरी हैं कि जब हम शिक्षासे निवृत्त हो और हमारी विद्यार्थी अवस्था समाप्त हो, उस समय शिक्षाका कोई न कोई विशेष फल हममें अवश्य पाया जाना चाहिए जो साधारण जनोमे न पाया 'जाय । मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि शिक्षित जनोंमे अन्य मनुष्योसे कोई भिन्नता प्रतीत हो । यह तो अत्यन्त घृणित है। हॉ, मेरी इच्छा यह जरूर है कि हम उन मनुष्योंकी तरह न हो जायें जो देखनेमे उत्तम शिक्षा पाये हुए है; परन्तु उनसे संभाषण, कीजिए, उनके पास रहिए, उनके विचार सुनिए और उनके अभ्यास और चरित्रपर दृष्टि डालिए तो कठिनाईसे उनमें और अत्यन्त संकुचित विचारवाले मूर्ख लोगोंमें कोई भेद होगा । शिक्षाके प्रचलित सिक्कोमें ऐसे खोटे सिक्के भी आपको बहुत मिलेंगे, परतु उनसे शिक्षा लेनी चाहिए। ऐसे मनुष्य जिनके हृदयोंमे उत्तम विचारोने 'प्रवेश ही नहीं किया, जिनके दिलमें असली शिक्षाका महत्त्व ही स्थापित नहीं हुआ, आपको प्रतिदिन मिल सकते हैं। हमारी यही प्रार्थना-होनी चाहिए कि हम उनके समान अपनी जातिके हानिकर, सदस्य न हों और शिक्षाको कलंकित न करें।* . . . . . . "दयाचन्द गोयलीय, वी. ए. __ ओनरेवल मौलवी खुर्वाजा गुलामुस्मकलीन वीं ए. एलएल वी. केम्ब्रिज प्राइज स्पाकीकर, लेंसिडोन मेडलिस्टके उर्दू लेखका अनुवाद।। . . ,
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy