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________________ पदवियोंसे विभूषित करने लगे। फेशनकी चुगलमेंसे निकलनेके साथ ही मेरे कुटुम्बी जन मुझसे असन्तुष्ट जान पड़े। मायाचारी कथन अथवा मुँहदेखी बातें कहना छोड देनेका और अमिश्र सत्य कहनेका परिणाम यह हुआ कि धनिक, अगुए और त्यागी नामधारी लोग मुझसे रुष्ट हो गये-वे मेरे विरुद्ध आन्दोलन करने लगे। जैनतत्त्वज्ञानकी प्राप्ति तो मुझे शुरूसे ही आनन्द देने लगी थी परन्तु यह 'जैनजीवन' तो मेरे लिए शुरूसे ही कष्टकर और असह्य हो गया। परन्तु, इतना ही कष्ट मेरे लिए बस न हुआ। पहले प्राप्त किये हुए ज्ञानने इस कष्टमे और भी वृद्धि की । पूर्वजन्मोंका स्मरण होनेसे, मन-वचन-कायरूप शस्त्र हिंसक कार्योंमें निरन्तर प्रवृत्त करनेसे जो आल्माका प्रत्येक प्रदेश अन्धकारसे छा रहा था उसका ख़याल आनेसे, और जीवन अनिश्चित है इसका विश्वास हो जानेसे, मैं प्रत्येक मिनिट, प्रत्येक पाई, और प्रत्येक मौका खो देनेके पहले हज़ारों तरहके विचार करने लगा। भला, ऋणी तथा भिखारीका उडाऊ या अपव्ययी होनेसे कैसे काम चल सकता है ? मनुष्यका जीवन अनिश्चित है। उसे पूर्व कर्मोरूपी बड़े भारी कर्जको अदा करना है। तब वह अपने हाथकी समयरूप लक्ष्मी, द्रव्यरूप लक्ष्मी, शरीरबलरूप लक्ष्मी और विचारबलरूप लक्ष्मी; इन सबका बिना विचारे उड़ाऊकी तरह कैसे खर्च कर सकता है ? इससे मै उन विषयोंका भी गहरा पैठकर विचार करने लगा कि जिन्हें दुनिया बिलकुल मामूली समझ रही थी। सचमुच ही सच्चा ज्ञान बड़ी भारी जोखिमदारी उत्पन्न कर देता है। प्रत्यक कार्य करते समय मुझे पूर्व कर्मोका, वर्तमान देशकालका और आगामी परिणामका
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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