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________________ १५७ परसे मैं विकाशसिद्धान्तके नियमोका ( Law of Evolution) मुझे ज्ञान होने लगा; अर्थात् इस जन्मके आशय और कर्तव्यको मैं समझने लगा । पुनर्जन्मका सिद्धान्त, कर्मसिद्धान्त, जड़ चेतनकी शक्ति और उनकी खूबियाँ, अनेक दृष्टिबिन्दुओसे प्रत्येक विचार करने वाली-नय निक्षेपोंकी योजना, स्थूल औदारिक शरीरके सिवा तेजस कार्माण शरीरोंका अस्तित्व, मनुष्यशरीर और विश्वरूपकी समानता, स्वर्गादि सूक्ष्म अदृष्ट भवनोंका अस्तित्व और सौन्दर्य, लेश्याओ (सूक्ष्म देहके रगों) का स्वरूप और उनसे होनेवाले परिणाम इत्यादि बातोंने मेरे मनपर वडा भारी प्रभाव डालना शुरू किया। ऐसा मालूम होने लगा कि मैं अंधेरे से एकाएक प्रकाशमें आ रहा हूँ। मुझे विश्वास होने लगा कि इस नवीन प्राप्त किये हुए ज्ञानसे जीवनकी प्रत्येक घटनाका कारण ढूँढा जा सकता है । मुझे अपने भीतर छुपे हुए 'कोई ' का अनुभव होने लगा। जिस ज्ञानसे मेरे नेत्र खुल गये, और जिस ज्ञानसे समझमें नहीं आनेवाली बातोंका भेद समझमें आने लगा उस ज्ञानपर मोहित हो जाना मेरे लिए बिलकुल स्वाभाविक था । अब मुझे इस बातके कहनेमें कुछ भी लजा या संकोच नहीं रहा कि एक दिन मै जिस 'जैन' शब्दका कहना अपने लिए अच्छा नहीं समझता था वही 'जैन' शब्द अपने नामके साथ जुड़ा हुआ देख सुनकर मुझे प्रसन्नता होने लगी। परन्तु मेरा यह आनन्द और उत्साह चिरस्थायी नहीं हुआ । ज्ञानकी नवीनतासे उत्पन्न हुआ आनन्द चिरस्थायी हो भी कहाँ सकता है। क्या थोडेसे सिद्धान्तोंका रहस्य समझ लेनेसे चिरस्थायी आनन्द प्राप्त हो सकता है ? यदि ऐसा होता तो चाहे जो मनुष्य वर्ष दो वर्ष ज्ञान प्राप्त करके सुखी हो जाता ।
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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