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________________ कर्कश, कुटिल, न नन कर्मचारी सम सारेपदभ्रष्ट होगये पुराने पत्ते न्यारे॥ देखो सुन्दर स्वच्छ हृदयके कोमल पल्लव, श्री-सम्पादन लगे वही पर करने अभिनव ॥ सुप्रबंधसे दूरकर, पक्षपात अविचारको। मानो इस ऋतुराजने, जमा लिया अधिकारको । (४) प्यारे वालकवृन्द, कहो, क्या शिक्षा पाई ? नवपल्लवके सदृश वनोगे तुम सुखदाई ? ज्यों अपने सौन्दर्य और रंगीनीसे ही। खुश करते ये सभी जगतको, सहज सनेही॥ वैसे ही तुम भी, कहो, पाकर गुणसम्पन्नतारूपरंगके ढंगसे, दोगे हमें प्रसन्नता? यथासमय ज्यों मुकुलपुंज, मंजुलता धारेखिलकर खुलकर हुए गन्धसे सबको प्यारे, निजविकाससे जन्मभूमिको किया सुगंधित, वैसे ही तुम हृदय-कलीको करो सुविकसित ॥ विद्या-बुद्धि-चरित्रके शुद्ध प्रशस्त सुवाससेश्रेष्ठ बना दो देशको तुम हार्दिक उल्लाससे ॥ (६) देखो, पावन पवन, यथा वह गन्ध मनोहरदिग्दिगन्तमें व्याप्त कर रहा, जाकर घर घर ॥ वैसे ही सवलोग तुम्हारे गुणगण गावें। सुयश तुम्हारा स्वयं जगत भरमें फैलावें॥ फूल, न चेष्टा कुछ करे, गुनगुन गुण गावें भ्रमर । तुम भी गुण-संग्रह करो, होगा सुयश स्वयं अमर ॥
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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