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________________ १२६ - मादि जैसे प्रेमपाठक महात्माओंको उत्पन्न करनेवाली पृथ्वीका, महाचीर पार्श्वनाथादि जैसे तीर्थकरोंको अपनी गोदमे पालन करनेवाली मेदिनीका त्राण करनेके लिए उसके उद्धारार्थ अपर्ण किया । वत्स, आजसे तुम इसी भारतभूमिको अपनी जननी समझना, समाज व धर्मको अपना पिता मानना, देशहितैषिता व समाजहितैषितामें महाराणा प्रताप व शिवाजीका अनुकरण करना, अपने धर्ममें दृढ़ रहना, प्राणके रहने तक अपने देशव्रतका व धर्मव्रतका पालन करना, महात्मा ईसाकी भॉति शूलीपर चढ़ने पर भी अपने धर्मकी रक्षा करना, साकेटीजकी भॉति यदि जहरका प्याला पीना पड़े तो बेधड़क होकर पीना, गुरु गोविन्दसिंहके नौ और ग्यारह वर्षके बालकोकी भांति यदि धर्मके लिए तुम्हें कोई दीवालमें चुनवा देनेकी आज्ञा दे तो तुम बेधडक होकर दीवालके साथ अपली इस नाशमान देहको चूने मिट्टीकी भाँति चुने जाने देना, अपने पूर्वज निकलङ्ककी भॉति यदि तुम्हें अपने प्राणोंका त्याग करना पड़े तो बेधडक होकर करना । किन्तु अपने धर्मको किसी तरह कलङ्कित न होने देना । सेठीजीके वचन बड़े ही मार्मिक हैं । प्रत्येक शिक्षित पिताको अपने पुत्रसे इसी प्रकारकी पवित्र आशायें रखनी चाहिए। ११ वम्बई प्रान्तिक सभाका वार्षिकोत्सव । अबकी बार बम्बई प्रान्तिक सभाका वार्षिक अधिवेशन शत्रुजय सिद्धक्षेत्रपर धूमधामके साथ हो गया। लगभग दो ढाई हजार दर्शक उपस्थित हुए थे। अधिवेशनमें सिवा इसके कि सभापति साहब
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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