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________________ १०० देखकर वे हमारे कामको अनुचित न कहने लगें इस खयालसे उसे जिन अनावश्यक शासनोंमें कैद होना पड़ता है उनसे वह सहज मनुष्यके बहुतसे अधिकारोंसे वञ्चित हो जाता है। पीछे कहीं उसे कोई धनी न समझे, इतनी सी भी लज्जा वह नहीं सह सकता, इसके लिये उसे पर्वततुल्य भार वहन करना पड़ता है और इसी भारके कारण वह पृथिवीमें पैर पैर पर दबा जाता है। उसको कर्तव्य करना हो तो भी इस सारे बोझेको उठा करके करना होगा, आराम करना हो तो भी इस भारको लादकर करना होगा-भ्रमण करना हो तो भी इस सब भारको साथ २ खींचते हुए करना होगा। यह एक बिलकुल सीधी और सत्य बात है कि सुख मनसे सम्बध रखता है-आयोजनों या आडम्बरोंसे नहीं। परन्तु यह सरल सत्य भी वह जानने नहीं पाता इसे हर तरहसे भुलाकर वह हजारों जड पदार्थोंका दासानुदास बना दिया जाता है । अपनी मामूली जरूरतोंको वह इतना वढा डालता है कि फिर उसके लिए त्याग स्वीकार करना असाध्य हो जाता है और कष्ट स्वीकार करना असभव हो जाता है। जगतमें इतना बडा कैदी और इतना बड़ा लॅगड़ा शायद ही और कोई हो। इतनेपर भी क्या हमें यह कहना होगा कि ये सब पालन पोषण कर्ता मा-बाप जो कृत्रिम असमर्थताको गर्वकी सामग्री बनाकर खड़ी कर देते हैं और पृथिवीके सुन्दर शस्यक्षेत्रोंको कॉटेदार झाडोंसे छा डालते है-अपनी सन्तानके सच्चे हितैषी हैं जो जवान होकर अपनी इच्छासे विलासितामें मग्न हो जाते हैं उन्हें तो कोई नहीं रोक सकता किन्तु बच्चे, जो धूल मिट्टीसे घृणा नहीं करते, जो धूप, वर्षा और वायुको चाहते हैं, जो सजधज कराने में कष्ट मानते हैं, अपनी सारी इन्द्रियोंकी चालना करके जगतको प्रत्यक्ष भावसे परीक्षा करके
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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