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________________ लोकोक्कियुक्त-जिनेन्द्रस्तुतिः। ३ । सो पदत्यागि मूढ निशिवासर, सुखहित करत कृपा अनमेल। * नीतिनिपुन यों कहै ताहि वर, 'बालू पेलि निकालै तेल' ॥३॥ मोह विवशमम मति अति श्रीपति,मलिन भई गतिअगति न विद्ध । तातें भूलि बन्यो यह कारज, हे आरज आचारज वृद्ध ॥ तासु उदै दुख दुसह सह्यो अब, आयौ शरन पुकारि प्रसिद्ध। राखहु लाज जानि जन अपनों, “गरे परैसो बजाये सिद्ध" जानत हौ अघ औगुनको फल,प्रगट दुखद यह प्रगट दिखाय।। * तौ मी वरवश जाय झुकत मन, मानत नाहिं शीव सुखदाय विना तुमारी कृपा कृपानिधि, मिटै न यह हठ आन उपाय। १ वक्र चक्रगत तजत न अंतर, जैसे "वरदमूतको न्याय॥ भक्तमुक्तिदातार कल्पतरु, कीरत कुसुमित शशिसम सेत। * इंदहमिंद अहिंद जजत नित, भवसागरतारन सुखसेत॥ मो मन वसहु निरंतर खामी, हरो विघन दुखदारिदखेत । प्रमुपदमाहिं प्रीति निति बाढौ,ज्यों श्रीपति अतिशायिन हेत। चहुँगत भ्रमत मोहमिथ्यावश, काल अनन्त गँवार गमाय। * श्रीपतिसों नहिं नेह कियो किम, काटै भवबन्धन दुखदाय ॥ अव सुघाट शुभ वाट मिल्यो है, ठाट वाट उदघाट उपाय ।। | शिव हित हेत आज सब पायो, यथा "काकतालीको न्याय" मत्तगयन्द । जो अपनो हित चाहत है जिय, तो यह सीख हिय अवधारो। कर्मज भाव तजो सब ही निज, आतमको अनुभौरस गारो॥
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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