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________________ कल्याणकल्पद्रुम । । हो सब ही विधि दीन अधीन, पुकारत हौ प्रमुसों कर जोरी।। से जानत हो सब लक्ष प्रतक्ष, तबै किमि दक्ष विलंब करोरी * मै तुमको तजि जाउं कहाँ, अव तो शरनागत आन परोरी ।। लेहु उबार हमें इह वार, न लावहु बार हरो दुख मोरी॥५२॥ सचित जन्म अनेकनिके अघ, ईंधनको तुम पावकज्वाला। . पारस औ कल्पद्रुमसों जो, मिलै नहिं सो तुम देत विशाला ॥ * दासनके दुखभंजनकी, श्रुत गावत कीरतिरासरसाला । । हो प्रभुको तजि जाउं कहाँ, जो रुचै सोकरो तुम दीनदयाला ५३ , हो शठ पापिनमें परधान, महा अघ औगुन खान भरोरी।। तारो तुम्ही अघवंतनिको, सुनि यातै गही शरनागत तोरी ॥ । छायक ऋद्धिके दायक हो, जिननायक जी मम आश मरोरी ।। जाउं कहाँ तजिकै पदपंकज, श्रीपतिजी पत राखहु मेरी ॥५४॥ रोग महोरगके विनतासुत, दारिद-कुंजर-केहरि नामी। संकट कानन भाननको, हो कृशानु प्रधान जिनेश्वरखामी ॥ विनमहातमको तरिनीपति, हो तुम श्रीपति कीरतिधामी।। । भोजिननाथगहो मम हाथ, निरंतर यो सुख अंतरजामी ॥५५ छन्द किरीट तथा माधवी । सब लोकविपै यह काल वली, कवलीकरतार महामद धारी। प्रभु ताहि विजैकरि आप विराजत हौ पदसिद्धविष अविकारी ॥ जिनक तुमरी शरनागत है. जन ते उबरें भयभीति निवारी ।। । अब मैं यह जानि गही पदपंकज.श्रीपतिजी सुधि लेहु हमारी५६ ॥ 1 विनतेय गर । २ ममि । ३ मूर्य ।
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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