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________________ जिनवचनस्तुतिः। *जिम सागरवीच कलोल उठी, सो सागरमांहि समानी है। I परजै करि सर्व पदारथमें तिमि, हान रु वृद्धि उठानी है ॥ जब शुद्ध दरबपर दृष्टि धरै, तब भेदविकल्प नसानी है। • नयन्यासनः बहु भेद सु तो, परमान लिये परमानी है॥हो०॥ जितने जिनवैनके मारग है, तितने नयभेद विभाखा है। एकांतकी पच्छ मिथ्यात वही, अनेकांत गहै सुखसाखा है। परमागम है सर्वंग पदारथ, नय इकदेशी भाषा है। * यह नय परमान जिनागमसाधित, सिद्ध करै अभिलाषा है हो॥ १२ * चिन्मूरतके परदेशपति, गुन है सु अनंत अनंता जी। न मिलै गुन आपुसमें कबहूं सत्ता निज भिन्न घरंता जी ॥ * सत्ता चिनमूरतकी सबमें, सब काल सदा वरतंता जी। । यह वस्तुसुमाव जथारथको, जिय सम्यकवंत लखता जी॥ हो. % 3D सविरोधविरोधविवर्जित धर्म, घरें सब वस्तु विराजै। जहँ भाव तहां सु अभाव वसै, इन आदि अनंत सुछाड़ है निरपेच्छित सो न सधै कबहूं, सापेक्षा सिद्ध समानै * यह अनेकांतसों कथनमथनकरि, स्यादवाद धुनि गाजै है॥होगा जिसकाल कथंचित अस्ति कही, तिस काल कथंचित नाही है।।
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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