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________________ RRRRRRRRRRRRH जिनवचनस्तुतिः। * बुधि केवल अप्रतिछेदविषै, सब लोकालोक समाना है। । मनु ज्ञेय गरास विकाश अटक, झलाझल जोत जगाना है । सर्वज्ञ तुमी सबव्यापक हो, निरदोषदशा अमलाना है। है यह लच्छन श्रीअरहंत विना, नहिं और कहीं ठहराना है।हो करु० | धर्मादिक पंच वसै जहँलों, वह लोकाकाश कहावै है। तिस आगें केवल एक अनंत, अलोकाकाश रहावै है॥ । अवकाश अकाशविषै गति औ, थिति धर्म अधर्म सुभाव है। * परिवर्तन लच्छन काल धरै,गुणद्रव्य जिनागम गावै है।होकरु०॥ * इक जीवो धर्माधर्म दरव ये, मध्य असंख प्रदेशी है। * आकाश अनंत प्रदेशी है, ब्रहमंड अखंड अलेशी है ॥ * पुग्गलकी एक प्रमाणू सो, यद्यपि वह एकप्रदेशी है। मिलनेकी सकंत खभावीसों, होती बहुखंध सुलेशी है।हो करु०॥ कालाणू भिन्न असंख अणू, मिलनेकी शक्ति न धारा है। तिसतै कायाकी गिनतीमें, नहिं काल दरबको धारा है ॥ हैं वयंसिद्ध षटद्रव्य यही, इनहीका सर्व पसारा है। निर्बाध जथारथ लच्छन इनका, जिनशासनमें सारा है । हो॥ सब जीव अनंतपमान कहे, गुन लच्छन ज्ञायकवंता है। तिसतै जड़ पुग्गल मूरतकी, है वर्गणरास अनंता है ॥
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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