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________________ पत्रव्यवहार । । अयं हि प्रश्नः । अत्रोत्तरं यच्च प्रोक्तं हेतोरनैकान्तिकनामा ? दोषोस्ति खपरमतप्रसिद्धः । तत्कथमनेकान्तमेव जैना मन्य-1 न्तेि । तदित्यं ज्ञातव्यं । विपक्षेप्यविरुद्धवृत्तित्वं नामानैकान्तिकत्वं । यथाऽनित्यः शब्दः प्रमेयत्वात् घटवत् इत्यत्र प्रमेय-* त्वादिति । तस्य हेतोराकाशे विपक्षमते नित्येपि निश्चयात् । । अनैकान्तिकत्वनामा दोषः साध्यागमकत्वात् । यश्चानेकान्तः । * स्याद्वादः, तस्य तु अनेके अन्ता धर्मा नित्याऽनित्यभावाभावप्रकार है ? अर्थात् जिसको अन्यमतीय हेतुका दोष कहते हैं, उस अने. कान्तको जैनी लोग अपना सिद्धान्त कैसे मानते हैं? ( पृष्ठ १२०* प्रश्न ५) * ११ इसका उत्तर यह है कि, जो हेतुसाध्यके विपक्षमे भी रहे, । ऐसे अनैकान्तिक कहते हैं । जैसे किसीने कहा कि, शब्द अनित्य है । क्योंकि प्रेमय है। जो प्रमेय होता है, सो अनित्य होता है जैसे कि, घट। * इस वाक्यमें शब्दकी भनित्यताको सिद्ध करनेवाला प्रमेय हेतु है।* । परन्तु वह अनित्यताके विपक्षभूत आकाशादिक नित्य पदार्थोमे भी * रहता है। क्योंकि वेभीप्रमेय हैं। इस प्रकार प्रमेयत्व हेतु शब्दकी अनित्यताको सिद्ध नहीं करसकता। इसलिये वह हेतु नहीं, किन्तु सदोष हेतु का अथवा हेलामास है । इसीको अनैकान्तिक हेत्वाभास कहते हैं । किन्तु * * स्थाबाद अनेकान्त ऐसा नहीं है । जिसमें प्रतिनियत सुनयगोचर प्रति-1 नियत हेतुओंकी विशेष विशेष विविक्षासे अनेक निस अनित्य, भाव अभाव, एक, अनेक, द्वैत, अद्वैत आदिक अन्त अर्थात् धर्म हो, उसे अनेकान्त कहते हैं । इस प्रकार पृथक्रव्युत्पत्ति करनेसे स्पष्ट सिद्ध होता है कि, जो अनैकान्तिक हेतुका दोष है, उसका अर्थ भिन्न है, और जो स्थाद्वादरूप अनेकान्त है, उसका अर्थ भिन्न है। और उसमें प्रत्यक्ष प. रोक्ष प्रमाणसे कोई दोष नहीं आता। इसका विशेष विस्तार प्रमेयकमलमार्तण्ड अष्टसहली आदि ग्रन्थोंमें किया गया है।
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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