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________________ पत्रव्यवहार। * सङ्ख्याप्रमाणादेव सर्वेषां यथायथमनन्ततासिद्धिरिति सुबोध-1 कमेतत् । तथाहि-प्रथमं सिद्धराशिरनन्तः ततोऽसंख्यगु*णितो गतकालसमयराशिः । ततोऽनन्तगुणितो जीवराशिः । अथवा सिद्धेभ्योप्यनन्तगुणितः संसारिजीवराशिस्ततोप्यनन्तगुणः कालराशिः त्रैकालिकसमयप्रमाणरूप' । ततोऽनन्त-1 * गुणः सर्वाकाशप्रदेशराशिः । ततो ऽप्यनन्तगुणो धर्माधर्मद्रव्यागुरुलधुगुणाविभागप्रतिच्छेदराशिः । ततोऽप्यनन्त गुणः सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तकजघन्यश्रुतज्ञानाविभागप्रति१च्छेदराशिः । ततोऽप्यनन्तगुणः दर्शनमोहक्षयरूपजघन्य-1 क्षायिकलब्ध्यविभागप्रतिच्छेदराशिः । ततोऽप्यनन्तगुणः । * उत्कृष्टः क्षायिकलब्धिरूपकेवलज्ञानाविभागप्रतिच्छेदराशिः। संख्याप्रमाणसर्वोत्कृष्टमेतत् । अत उत्तरं नास्ति । एवमनअन्तता यथायोग्यं ज्ञातव्याः। आर्या । जीवां अनन्तसंख्याः संसारविमुक्तभेदतो द्विविधाः। *संसारानिष्क्रान्ताः सततं सिद्धाः प्रजायन्ते ॥ लोकमें अनन्त जीव हैं। उनके दो भेद है, एक ससारी और दूसरे । मुक्त । जो संसारमें है, वे ससारी और जो संसारसे निकलकर सिद्ध हो । जाते हैं, उन्हें मुक्त कहते हैं। संसारी जीव इस प्रकार निरन्तर सिद्ध । * होते जाते हैं। ऐसी अवस्थामें उनकी संख्या कम क्यों नहीं होती? इसका * उत्तर सिद्धांत के अनुसार इस प्रकार है (इसके आगे उत्तर पत्रकी नकसमें बहुतसे अक्षर रह गये हैं । इस लिये उस पत्रका पूर्ण अनुवाद । नहीं लिखा जा सकता। परन्तु उन खण्ड अक्षरोंका सक्षिप्त अभि-I
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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