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________________ १२१ M पत्रव्यवहार। प्रार्थना-दोहा। काशीनाथ तुम्हें करे, वारंवार जुहार । धर्मस्नेह बढ़ाइयो, पढ़ियो सुवुधि सुधार ॥ तोमर । जिनश्रुत लिखाय सुधाय । तुम दिये मोहि पठाय । सो मिले अब सुखरास । ल्याये विशेसरदास ॥ तत्त्वार्थशासन सार । अरु समयसार उदार । ज्ञानारणव शिवपंथ । श्रीदेवआगम ग्रंथ ॥ श्रीसमायकको पाठ । पुनि द्रव्यसंग्रह ठाठ । अध्यात्मबारहखड़ी । त्रेपनक्रिया नगजड़ी ॥ श्रीवर्धमान पुरान । पूजा समवसृत जान ॥ द्वैसंधिके कछु पत्र । ये ग्रन्थ आये अत्र ॥ २६ ॥ तुम कीन अति उपकार । नहिं तुम सदृश संसार । जयवंत वरतौ संत । वृषवंत सुहृद महंत ॥ २७ ॥ हरिपद। एक अरज मेरी निज चित धरि, सुनियो रसिक सयान श्रीरविषेनकथित जो संस्कृत, वरनत पद्मपुरान ॥ सो तुम आगे लिखी हमें की, लिखो जात है शुद्ध । सो अब भेजो ललित कृपाकरि, ज्यों सुख पावै बुद्ध ॥ दोहा। इत ऐसी सुनियत अहै, लिखी फिरंगी प्रश्न । जैपुरमें जिनमतिनको, जिनमतभाषित जिश्न ।।
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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