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________________ पत्रव्यवहार। । ज्ञानानन्दसुभावकी, तुमकहँ प्रापति होह । यह वांछा मेरे रहत, मिटो सकल भ्रममोह ॥ १० ॥ मनालाल सखा सुमुख, समुखी सु (१) मुख सूनु। कलाकरनिकर नित बढ़ो, आनँदअम्बुधि पूनु ॥ ११॥ जयशशि कवि नंदलाल रवि, भये अलौकिक अस्त । । अब कविगन उड़गन धरहिं, जहँ तहँ उदय प्रशस्त ॥ १२॥ • आप सुमन गुरुसम सुमम, सुमनशमन जयवंत । विद्या बुधि बलवंत जय, मन्नालाल महंत ॥ १३ ॥ और जिते तहँ है अबै, पंडित खानुमवीय । तिन सबकहँ सनमानजुत, "जयति जिनेश" कहीय ॥१॥ हरिपद तथा शभू । । अब तुम समासुधारन जे है, पंडित मंडितज्ञान । __मन्नालाल आदि श्रुतिज्ञाता, स्यादवाद परमान । तिनसों या अपनी बुधिसों तुम, इन प्रश्ननको ज्वाब ।। मेलि दीजियो सुगम छिमाकर, तजि उपहास शिताबा॥१५* प्रश्न- शिखरिणी। सुनी मैया वैया वर व्रतधरैया मुनिवरा । * करै कोई कोई रुगितहिं रसोई निजकर ।। तहां शंकातंका उठत अति बंका विवरणी। निरंभी आरंभी अजगुत कथा भीम करणी ॥ १६ ॥ प्रश्न २- कुसुमलता। नभ अनकोल अनंतप्रदेशी, तातें केवल ज्ञान अनंत । इयों सिद्धनमहें प्रगट कही तह, जुगतसहित शंका उपजत॥
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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