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________________ पत्रव्यवहार। तोमर । लक्ष्मीकुमुदमुदचंद । श्रीशेठलक्ष्मीचन्द । * जयवन्त राधाकृष्ण । गोविंद गुनमनिजिष्ण ॥ ६॥ । त्रिभुवन सु गुनमंडार । जस जासु जग विस्तार । जिमि होहिं जिनगुनमम । सो करहु काज अमम ॥ ७॥ तिनसों बहुत परकार । कहियो जुहार विचार ॥ धरि घरम नूतन नेह । पत्री लिखों गुनगेह ॥ ८॥ दोहा। मित्र तुम्हारे दरसकी, चाह रहत नित चित्त । कब मिलि हो सो दिवस धन, पावन परम पवित्त ॥ ९॥ संवत्सर विक्रम विगत, वाने र गर्न चंद। पौष सेत दुति भौमदिन, लिख्यो पत्र जन 'बंद' ॥१०॥ जयपुरके दीवान अमरचन्द्रजीके प्रति । अनुष्टुप् । प्रणम्य त्रिजगद्वन्धं जिनेन्द्र विनसूदनम् । लिख्यतेऽदो वरं पत्रं मित्रवर्गप्रमोददम् ॥ १॥ मोदक। जैपुर जैनपुरी जनु राजत । धर्मसुखी जन जन विराजत । * शोमित श्रीजिनमंदर सुंदर देखि प्रमोदित होत पुरंदर ॥२॥ * स्यात्पदमुद्रित श्रीजिनशासन ।जत्र उदै उरध्वांत विनाशन। जेम अखंडल खंड अखंडित । तेम सु पंडितमंडलमंडित ॥३॥
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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