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________________ पत्रव्यवहार। ११५१ जोग अजोग विचारि अखंडित । उत्तर वेग लिखौ अविहंडित ॥ सारवती। चारक नारक वास अहै । लोक विलोक प्रसिद्ध कहै। तामधितै मोहि पाहि विभो । दीनदयाल समर्थ प्रभो ॥ भुजगी। हमें आपका है बड़ा आसरा। सुनो दीनके बंधु दाता वरा ॥ नृपागारगर्ताततै काढ़िये । अमैदान आनंदको बाढ़िये ॥ रथोद्धता। है और क्या अधिक आपसों कहैं । आप तात सब जानते हैं। । कीजिये अब उपाय नासते (ए)।मोह 'वृन्द' सुख होय जासते।। (नादविद्यावित् चेतनाथ पंडितसे प्रार्थना।) दोहा। चिदानंद चिद्रूप घन, तास दास सुखरास । तिनप्रति करजुग जोरि नित, विनवत 'वृन्द' हुलास । प्रमाणिका (गुर्वादि)। मूल चूक शोधको । लीजिये सुबोधको । कीजिये न क्रोधको । जानि बालबोधको । सोरठा। केवल ग्रह दिन चंद, संवत शक विक्रम विगत । कातिक कलि कुज छन्द, 'वृन्दावन' पत्री लिखी ॥ -
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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