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________________ . वृन्दावनविलासर कीरति कलित ललित तित राजत, ललितकीर्ति गुनचन्द । दयांवधू-पत धूपतसे ध्रुव, सुबुधि-सुधानिधिचन्द ॥ १ ॥ तरलनयन। . कुमतितिमरहरदिनकर, बनमनकमलअमलकर । विधन-सघन-दव-जलधर, जय जतिवर भवभयहर ॥२॥ शार्दूलविक्रीड़ित। शब्दब्रह्मविचारधारणधुरी चिद्रमविद्यापती । स्थाद्वादामृततृप्तचित्त-सहजानन्दैक जैनी जती। दीक्षा शिक्षविधानदायकमहाकल्याणकल्पद्रुमं । नित्यं तं प्रणमामि यामि शरणं लालित्यकौतिक्रम ___ अनुकूला। . * वृन्दमयी है पद्जुग ताकौ । आनँददाई जग जस जाकौ। । आगम-अध्यातम-मनिमाला । है उर जाके विशद विशाला ॥४॥ वसततिलका। आनन्दहेत छविदेत सुचेतकारी। पत्री प्रभो तव विनोदप्रदा पधारी ।। वांची निहारि उर आनंद 'वृन्द' पाती। पायो प्रमोद जिमि चातक बुन्द खाती ॥ ५॥ * १ दयारूपी वीके पति।धूपत अर्थात् ध्रुव तारेके समान स्थिर। २ श्री भदैनीजी सुपाश्र्वनाथजीकी जन्मकल्याणककी भूमि काशीजीमें है, सो श्वेता*म्बरियोंने दिगम्बर सम्प्रदायका तीरथ उठावनेक उपद्रव किया सो प्रयागमें । * मुकदमा गया। तब यहाके अदालतमें जो कुछ फैसला हो, वही सर्व दाके वास्ते अचल रहै है । सो संताम्बरीयोंमें काशीजीमें अदालतमें और * अपोलमें हार गये थे सो प्रयागमें बड़ी तदवीर करी थी, तिससे देवीसहायको इनने लिखा है। (वृन्दावन)
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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